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मोदी आज हाइफ़ा शहर जाएंगे

मोदी इजरायल दौरे के आखिरी दिन आज हाइफा शहर जाएंगे। वहां जाने वाले वे पहले भारतीय पीएम होंगे। 99 साल पहले भारतीय सैनिकों ने इस शहर को तुर्काें से आजाद कराया था। वो सिर्फ तलवार और भाले लेकर तुर्की सेना पर टूट पड़े। दुश्मन सेना के पास बंदूक और मशीनगन थीं, इसके बाद भी भारतीय सैनिकों ने हिम्मत नहीं हारी जंग जीत ली।

मोदी इस युद्ध में शहीद हुए 44 भारतीय सैनिकों की समाधि पर जाएंगे और उन्हें श्रद्धांजलि देंगे। उनकी याद में वो दिल्ली के तीन मूर्ति चौक का नाम बदलकर हाइफा चौक करने का एलान कर सकते हैं। बता दें कि भारतीय घुड़सवार सैनिकों की यह बहादुरी इजरायल के कोर्स में भी पढ़ाई जाती है।

 

पहले वर्ल्ड वॉर के दौरान 99 साल पहले (सितंबर 1918 में) भारत के सैनिकों ने हाइफा को तुर्की के ओटोमन एम्पायर को आजाद कराया था। 402 साल से इस इलाके पर तुर्की का कब्जा था। इस जंग में भारतीय सैनिकों ने बहाई कम्युनिटी के स्पिरिचुअल लीडर अब्दुल-बाहा को भी बचाया था।

भारत में उस वक्त अंग्रेजों की हूकूमत थी और उन्होंने भारत की तीन रियासतों- जोधुपर, मैसूर और हैदराबाद के घुड़सवार सैनिकों को जनरल एडमंड एलेन्बी की अगुआई में वहां लड़ने भेजा था।भारतीय सैनिकों में पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह के पिता ठाकुर सरदार सिंहराठौर भी थे।

बताया जाता है कि भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों ने हाइफा भेज तो दिया, लेकिन उनके मन के एक शक बैठ गया। उन्होंने सोचा कि जोधपुर और मैसूर के दल में हिंदू सैनिक हैं, जबकि हैदराबाद की सेना में मुस्लिम सिपाही हैं। उन्हें लगा कि मुस्लिम सैनिक तुर्की की खलीफा सेना से मुकाबला करने से पीछे हट सकते हैं। ऐसे में उन्होंने जंग पर सिर्फ मैसूर और जोधपुर के सैनिकों को भेजा।

हैदराबाद के सैनिकों को दूसरे कामों में लगा दिया गया।माउंट कार्मल की पहाड़ी से घेराबंदी करके जोधपुर के सैनिकाें ने जर्मनी और तुर्की की सेना को चौंका दिया। उधर, मैसूर के सैनिकों ने पहाड़ी के साउथ से हमला बोल दिया। भारतीय सैनिक तलवार और भालों से लड़ रहे थे, लेकिन तुर्की की सेना के पास बंदूकें और मशीनगन थीं।

ऐसे में आमने-सामने की इस लड़ाई में शुरू में कई भारतीय सैनिक शहीद हो गए। अंग्रेज अफसरों ने उनसे लौट आने को कहा, लेकिन उन्होंने पीठ दिखाना ठीक नहीं समझा और आखिर में जीत हासिल की। शहीद हुए सैनिकों का वहीं अंतिम संस्कार किया गया। उनकी अस्थियां भारत भेजी गई थीं।

इजरायल के इतिहास में भी भारतीय सैनिकों की बहादुरी के किस्से हैं। मिलिट्री ऑपरेशन इजिप्ट एंड फलिस्तीन: वॉल्यूम 2 बुक में लिखा है इस पूरे कैम्पेन के दौरान घुड़सवारों की एेसी बहादुर नहीं दिखी। तेजी से भागते घोड़ों को रोकने में मशीनगन की बुलेट भी नाकाम थीं। हालांकि, जख्म की वजह से बाद में इनमें से कई की मौत हो गई।

बता दें कि भारत के ये घुड़सवार सैनिक सिर्फ तलवार और भाले से लड़े थे, जबकि दुश्मन के पास बंदूक से लेकर मशीनगन तक थीं। तुर्की की सेना को जर्मनी और ऑस्ट्रिया की सेना का भी सपोर्ट था।इस जंग में भारतीय ब्रिगेड ने 1350 जर्मन सैनिकों को बंदी बनाया था। 17 गन, 11 मशीन गन जब्त की गईं। 

इस जंग में 44 भारतीय सैनिक शहीद हुए, जिनकी यहां समाधियां बनी हुई हैं। इस लड़ाई में भारतीय सैनिकों के 63 घोड़े मारे गए और 80 जख्मी हुए थे।पहले वर्ल्ड वॉर के दौरान पूरे इजरायल में करीब 900 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे।हाइफा की जंग ने ब्रिटिश फौज की जीत और इसके 30 साल बाद इजरायल के बनने का रास्ता खोल दिया।

इस जंग में बहादुरी के लिए कैप्टन अमन सिंह बहादुर और दफादर जोर सिंह को इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट (आईओएम) दिया गया।कैप्टन अनूप सिंह और 2nd लेफ्टिनेंट सगत सिंह को मिलिट्री क्रॉस (एमसी) से नवाजा गया।हाइफा को आजाद कराने के लिए मेजर दलपत सिंह की जांबाजी की वजह से उन्हें इतिहास में ‘हीरो ऑफ हाइफा’ के नाम से जाना जाता है। उन्हें भी मिलिट्री क्रॉस से नवाजा गया था।

पहले वर्ल्ड वॉर में हाइफा में लड़ते हुए शहीद हुए भारतीय जवानों की शहादत इजरायल के स्कूलों में भी पढ़ाई जाती है।करीब 5 साल पहले हाइफा म्यूनिसिपलिटी ने इस जंग को टेक्स्ट बुक में शामिल करने का फैसला किया था।हाइफा की म्यूनिसिपलिटी भारतीय फौज की बहादुरी की याद में हर साल यहां प्रोग्राम भी करती है।हर साल 23 सितंबर को भारतीय फौज हाइफा डे मनाती है।

इसी दिन भारतीय घुड़सवारों के दल ने हाइफा में तुर्की और जर्मनी की सेना को हराया था। इजरायल में भी इसी दिन हाइफा डे मनाया जाता है। इस दौरान वहां एक हफ्ते तक कल्चरल प्रोग्राम होते हैं।17 साल पहले उस वक्त के विदेश मंत्री जसवंत सिंह हाइफा गए थे, लेकिन 70 साल में वहां कोई भारतीय पीएम नहीं पहुंचा। पहली बार वहां जाकर कोई भारतीय पीएम भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देगा।

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