सरकार की ताजा परेशानी का कारण बन रही सोशल नेट्वर्किंग साइटों पर आम जनता द्वारा की जा रही सरकार विरोधी बयानबाजी। कपिल सिब्बल द्वारा जारी किये गए बयान के अनुसार ये कहा गया है कि सोशल साइटों पर हो रही सरकार विरोधी बहस और बातें सही नहीं हैं, उन्होंने ये भी कहने की कोशिश की इन सोशल साइटों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। उनके इस बयान से देश में एक नयी बहस छिड़ गयी है। क्या जनता द्वारा किये जा रहे विचारों के आदान प्रदान पर सरकार द्वारा मीन-मेख निकालना सही है?
क्या संविधान द्वारा दी गयी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सरकार द्वारा अपहरण करने की साजिश रची जा रही है? क्या एक लोकतान्त्रिक देश में अपनी बात को कहना एक अपराध है? कपिल ने पत्रकारों को दिए गए बयान में कहा कि गूगल, फेसबुक, माइक्रोसोफ्ट, याहू व् ट्विटर के प्रतिनिधियों को बुलाकर हमने आपत्ति जताई है। ५ दिसंबर को उनसे भेंट वार्ता के दौरान लिखित में प्रतिबन्ध की मांग की थी। जिसे साइटों के प्रतिनिधियों ने देने से इनकार कर दिया, उनका कहना है की आपको जिस आपत्तिजनक लेख या तस्वीर से आपत्ति है उसके बारे में हमें सूचित करें हम उसपर कार्यवाही करने के लिए तैयार हैं। यदि आप चाहें की सभी भारतियों के सरकार विरोधी लेखों पर हम नियंत्रण रखें ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि भारत में २.५ करोड़ फेसबुक और १० करोड़ गूगल यूजर हैं। वास्तव में यह सारी कार्यवाहियां सरकार के आलाकमान को खुश करने के लिहाज से कि गयीं हैं।
तथाकथित किसी साईट पर सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह व् प्रणव मुखर्जी की कुछ आपत्ति जनक तस्वीरें डाली गयीं थीं, और कुछ आपत्ति जनक लेख लिखे गए थे। इस पर सरकार हैरान, परेशान है, लेकिन सरकार ने ये जानने की कतई कोशिश नहीं की आखिर क्यों ये तस्वीरें और लेख डाले व् लिखे गए। क्या जनता मौजूदा सरकार की नीतियों से खुश नहीं है? अगर किसी व्यक्ति, संगठन पर आक्षेप की बात हो तो हम उसका विरोध करते हैं लेकिन बात यहाँ जनभावना की है।
आज बदलते समय के साथ सामाजिक संबंधो की परिभाषा भी बदल गयी है अब की जनता अपनी भावनावों का आदान प्रदान इंटरनेट के माध्यम से करती है। अगर इन पर प्रतिबन्ध की बात हो रही है तो यहाँ याद दिला देते हैं की सीरिया और लीबिया में हुई जनक्रांति की सफलता इंटरनेट के माध्यम से ही मिली। हमारी संसद में कैश फार वोट का मामला नेट के माध्यम से विकिलीक्स द्वारा खुलासा किया गया था। ओसामा बिन लादेन के ऊपर हुई अमेरिकी कार्यवाही की खबर सबसे पहले ट्विटर पर ही पता चली। बी जे पी के समय हुआ तहलका मामला भी इसी के माध्यम से पता चला। कुल मिलाकर इन साइटों पर प्रतिबंधन की कार्यवाही अलोकतांत्रिक है। रही बात आपत्तिजनक टिप्पणियों की तो यह गलत है। इसके सन्दर्भ में एक बात और याद दिला दे की जनलोकपाल के आन्दोलन के दौरान टीम अन्ना ने जन समर्थन के लिए एस एम् एस का सहारा लिया था। इसके बाद संचार मंत्रालय ने गाइड लाइनलगा दी है। एक दिन में १०० एस एम् एस से ज्यादा नहीं किये जा सकते। इस प्रकार सरकार की यह प्रतिबन्ध रुपी चाल भी अन्ना फैक्टर से ही प्रेरित जान पड़ता है। फिर भी सरकार की सोशल साइटों पर प्रतिबंधन की मांग एक खोखली राजनीति है।
अभिषेक दुबे
इंडिया हल्ला बोल