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समय के साथ विलुप्त होती जा रही "फगुआ संस्कृति"

यूँ तो मैं पैदा गाँव में ही हुआ था,लेकिन पिता जी की सरकारी नौकरी कह लीजिए या मेरा  अपनी माँ के प्रति अगाध  प्रेम  की वजह ,  मै पांच वर्ष की अवस्था में शहर आ गया था | यानि पिताजी ने मेरा नामांकन शहर के प्रतिष्ठित विद्यालय में करवा दिया था ,फलतः अब मै अपनी माँ के साथ, पिताजी के साथ रहता था |शुरू से ही मुझे  स्कूल एक यातनागृह लगता था ,वहां तो खैर किसी तरह चला लेता था ,लेकिन शाम होते ही एक भय सा दबाने लगता था क्योंकि पिताजी के दफ्तर से लौटने के बाद और मुझे लेकर पढ़ाने बैठना वास्तव में मुझे किसी कालापानी की सजा से कम नहीं लगती थी। मन ही मन यह भी मनाता रहता था की हे प्रभु ! बिजली चली जाए। पिताजी का पढ़ाई  को लेकर  मुझे प्रताड़ित माँ को भी अखरता था जब नहीं देख पाती तो मोहल्ले में निकल जाती, लेकिन आज जान पड़ता है की पिताजी की उस डांट, फटकार और प्रताड़ना के पीछे कहीं न कहीं मुझे एक होनहार बनाने की प्रक्रिया छुपी हुई  थी।

खैर मैं यहाँ अपनी आत्मकथा नहीं सुना रहा हूँ  इसके पीछे भी एक कहानी छुपी है। जब कोई त्यौहार आता तो पिताजी हमें अपने गाँव ले जाते थे और तब गाँव का नाम सुनकर मेरा रोम रोम इतना पुलकित हो जाता की बस मैं तो यही माँ से पूछता की कब चलना है। फिर हम गाँव पहुँच जाते। अगर यह त्यौहार होली का हो तो फिर कहने ही क्या।

होली में तो अपनी ही मौज रहती थी, मेरे दादाजी और दादी अपने आँखों पर रखते थे मैं अपनी बात भी खूब मनवाता था। मेरे गाँव के हमउम्र साथियों और परिवार के भाई बहनों के बीच भी मेरी  चलती थी।  होली में हम सब भाई बहन घर के आँगन में एक बड़े बर्तन जिसको हमारे यहाँ “हंडा” कहा जाता था उसमे रंग घोल कर गाँव के गलियों में रंग खेलने निकल पड़ते थे। कुछ रंग हाथ में लगा कर रखते थे  जो जैसा जहाँ  मिला वही लगा देते थे।

हालाँकि उस समय उम्र और कद में छोटा होने की वजह से मैं ही रगड़ दिया जाता था। जब इससे मन भर जाता तो हम सभी अपने छत  पर चढ़ कर पिचकारी से आते जाते राहगीरों पर डालते थे कोई बिगड़ जाता तो उसे और नहला देते ज्यादातर कोई कुछ कहता नहीं था क्योंकि सभी हमारे दादा जी की इज्जत करते थे।  हम उनकी आड़ में अपनी मस्ती को अंजाम देते थे।

दिन का दूसरा पहर शुरू होने के बाद हमारे गाँव में एक ऐसा स्थान है जिसके बारे में कहा जाता है कि कभी  कोई पहुंचे हुए साधू बाबा वहां रहते थे जिनके पास तथाकथित कुछ शक्तियां रही थी वही उन्होंने अपनी समाधि ली थी। उसी  जगह गाँव के गणमान्य लोग आ कर बैठते जिनमे बुजुर्ग, नौजवान युवा और हम जैसे बच्चे भी होते थे। बच्चो को अलग कर दीजिए तो बुजुर्ग लोग ढोलक, मंजीरे, हारमोनियम लेकर होली गीत जिसे “फगुआ” गाते थे। इन फगुआ गीतों में बरसाना , वृन्दावन . गोकुल की कृष्ण जी की रास लीलाओं का वर्णन होता था।

उस जगह जहाँ फगुआ होते थे उस चौपाल को हम “मक्कान” के नाम से जानते हैं , तो यह फगुआ मण्डली  मक्कन से शुरू होती थी और गाते बजाते गाँव के सभी लोगो के घर जाती थी सबसे  प्रेमपूर्वक  गले मिलकर होली की शुभकामनाएं  देते थे बुजर्ग  महिलाओं  का पैर छू कर आशीर्वाद लेते थे।  क्या गरीब क्या अमीर सभी से प्रेमपूर्वक मिला जाता था।

इन सभी क्रियाओ के बीच हम बच्चो की  तो मौज रहती जहाँ जाते वही गुझिया और समोसे आदि खूब खाने को मिलते। खैर ये चीजे आज भी मेरी सबसे बड़ी कमजोरी हैं। हम भी अपनी हमउम्र के साथियों से खूब अबीर गुलाल लगा कर गले मिलते और कहीं तो सुबह का जो रंग का कसर रह जाता था वह शाम को अबीर से नहलाकर पूरा करते थे। कहीं किसी के घर अगर गुझिया के बाद अगर पान मिल रहा होता तो हम खास कर पिताजी की नजरो से बच कर एक दो बीरा पान मार कर खा लेते। इसके बाद मुँह लाल कर साथियों के साथ अगले घर की तरफ आक्रमण  कर दते थे।

कुल मिला कर होली का त्यौहार हम बच्चो के लिए एक स्वछंदता का प्रतीक होता था।  समय के धीरे धीरे करवट बदलने के बाद हर चीज में बदलाव आती गयी। मैं भी धीरे से समझदार होता गया। कालेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के “पूरब का आक्सफोर्ड” कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय  पहुँच गया  इसी के साथ मेरा इस प्रिय  पर्व से अलगाव शुरू होता गया क्योंकि इसी दौरान हमारी विश्वविद्यालयीय परीक्षाएं होती थी और घर दूर होने कारण घर जाना नहीं हो पाता था। होली के समय वह वीरान हास्टल बड़े अखरते थे, लेकिन मैंने समझौता करना शुरू कर दिया था हास्टल की जिन्दगी के बाद मेरी लड़ाई अभी दिल्ली से होनी बाकी थी। यहाँ आकर और पत्रकारिता पेशे होकर किसी टीवी चैनल में होने का सबसे बड़ा खामियाजा यह हुआ की अब मैं चाहकर भी अपने परिवार से होली में मिल नहीं पाता अब तो यह आदत सी प्रतीत होने लगी।

इस लेख के माध्यम से जो मैं कहना चाहता हूँ कि आज के इस भाग दौड़ भरी जिन्दगी में हम कितने तेजी से बदलते जा रहे हैं। हमारी लोक संस्कृतियाँ हमसे कितनी दूर होती चली जा रही है।  वो आल्हा की थाप  ढोल मंजीरे और खडताल की गूंज कही खोती जा रही है।  इसी के साथ खोती जा रही है हमारी “फगुआ संस्कृति ” जो हमें हमारे पुरातन संस्कृति से परिचय कराती है वह अमूल्य है भौतिकता की आड़ में हम इन्हें खोते जा रहे है हमें इसके बारे में सोचना होगा।

–अभिषेक द्विवेदी —

{इण्डिया हल्लाबोल ,दिल्ली }

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