यह बात सौ फीसदी सच नजर आती है कि लोकतंत्र में व्यक्तिवाद और परिवारवाद उचित नहीं है और नीति व विचार को ही महत्व दिया जाना चाहिए, मगर सच्चाई ये है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश कहाने वाले हमारे भारत में परिवारवाद और व्यक्तिवाद ही फलफूल रहा है। कांग्रेस तो चल ही परिवारवाद पर रही है, जबकि भाजपा लोकतांत्रिक पार्टी कहलाने के बावजूद उसमें व्यक्तिवाद का बोलबाला है।
ताजा उदाहरण ही लीजिए। कर्नाटक में पार्टी को खड़ा करने वाले निवर्तमान मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का कद पार्टी से ही बड़ा हो गया। वो तो लोकायुक्त की रिपोर्ट का भारी दबाव था, वरना पार्टी के आदेश को तो वे साफ नकार ही चुके थे। येदियुरप्पा की कथित धमकियों के आगे पार्टी को झुकना पड़ा। आखिरकार पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई संसदीय बोर्ड के एकमत से इस्तीफा देने के फैसले को मानने केलिए उन्हें मजबूर किया गया। हालांकि येदियुरप्पा ने इस्तीफा भले दे दिया है, लेकिन पार्टी आलाकान से कथित सौदा करने के बाद ही उन्होंने यह कदम उठाया है। अपनी पसंद का मुख्यमंत्री चुनने की शर्त पर ही वे राजी हुए। हटने के बाद भी यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा के अधिसंख्य विधायक पार्टी के साथ नहीं, बल्कि येदियुरप्पा के साथ हैं। उनके इस्तीफे को भले ही भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी नैतिक जीत के रूप में गिनाए, मगर सच ये है कि उसे संगठन के स्तर पर बहुत नीचे जा कर समझौता करना पड़ा। असल में येदियुरप्पा की असली ताकत लिंगायत समाज है, जिसके दम पर वे पार्टी आलकमान को नचाते रहे हैं। अर्थात लोकतांत्रिक पार्टी में वहां व्यक्तिवाद के साथ जातिवाद भी अपना असर दिखा रहा है।
कर्नाटक अकेला ही उदाहरण नहीं है। राजस्थान, गुजरात, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे कई राज्य हैं, जहां के क्षत्रपों ने न सिर्फ पार्टी आलाकमान की आंख से आंख मिलाई, अपितु अपनी शर्तें भी मनवाईं। मजे की बात है कि उसके बाद भी पार्टी सर्वाधिक अनुशासित कहलाती है। और उसी में अनुशासनहीनता की सर्वाधिक घटनाएं होती हैं।
राजस्थान का मामला सर्वाधिक चर्चित रहा, जिसकी वजह से पार्टी की राजस्थान इकाई खूंटी पर लटकी नजर आई। यहां पार्टी आलाकमान के फैसले के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया। बड़ी मुश्किल से उन्होंने पद छोड़ा, वह भी राष्ट्रीय महासचिव बनाने पर। उनके प्रभाव का आलम ये था कि तकरीबन एक साल तक नेता प्रतिपक्ष का पद खाली ही पड़ा रहा। आखिरकार पार्टी को झुकना पड़ा और फिर से उन्हें फिर से इस पद से नवाजा गया। मजे की बात ये रही कि वे इस पद को लेने को तैयार ही नहीं थीं, बड़ी मुश्किल से उन्हें मनाया गया। यानि हटते और फिर नियुक्त होने दोनों बार उन्होंने पार्टी हाईकमान को घुटने टिकवाए। ऐसे में भाजपा के इस मूलमंत्र कि ‘व्यक्ति नहीं, संगठन बड़ा होता हैÓ, की धज्जियां उड़ गईं। राजस्थान में तो संघनिष्ठ और भाजपाई अलग-अलग खेमों में बंट चुके हैं।
आपको याद होगा कि दिल्ली में मदन लाल खुराना की जगह मुख्यमंत्री बने साहिब सिंह वर्मा ने हवाला मामले से खुराना के बरी होने के बाद उनके लिए मुख्यमंत्री पद की कुर्सी को छोडऩे से साफ इंकार कर दिया था। जब उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपने लिए पद देने का प्रस्ताव दिया गया, तब जा कर माने। उत्तर प्रदेश में तो बगावत तक हुई। कल्याण सिंह से जब मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा लिया गया तो वे पार्टी से अलग हो गए और नई पार्टी बना कर भाजपा को भारी नुकसान पहुंचाया। उनका आधार भी जातिवादी ही था। इसी प्रकार उत्तराखण्ड में भगत सिंह कोश्यारी और भुवन चंद्र खंडूरी को हाईकमान के कहने पर मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा, मगर जब वहां विधानसभा चुनाव हुए तो पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के कहने के बावजूद उस रैली में खंडूरी और कोश्यारी नहीं पहुंचे।
मध्यप्रदेश में उमा भारती का मामला भी छिपा हुआ नहीं है। वे राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को खुद पर कार्रवाई की चुनौती देकर बैठक से बाहर निकल गई थीं। शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर उन्होंने अलग पार्टी ही गठित कर ली। एक लंबे अरसे बाद उन्हें पार्टी में शामिल कर थूक कर चाटने का मुहावना चरितार्थ किया गया।
मध्यप्रदेश में उमा भारती का मामला भी छिपा हुआ नहीं है। वे राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को खुद पर कार्रवाई की चुनौती देकर बैठक से बाहर निकल गई थीं। शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर उन्होंने अलग पार्टी ही गठित कर ली। एक लंबे अरसे बाद उन्हें पार्टी में शामिल कर थूक कर चाटने का मुहावना चरितार्थ किया गया।
इसी प्रकार गुजरात में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का कद आज इतना बड़ा हो चुका है कि पार्टी पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगने के बाद भी हाईकमान में इतनी ताकत नहीं कि उन्हें इस्तीफे के लिए कह सके। मोदी तो अपना हठ तब भी दिखा चुके हैं जब गुजरात दंगों के बाद हुए विधानसभा चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठ नेताओं के कहने के बावजूद उन्होंने (मोदी ने) हरेन पंड्या को टिकट देने से इंकार कर दिया था।
इसी प्रकार झारखण्ड में शिबू सोरेन की पार्टी से गठबंधन इच्छा नहीं होने के बावजदू अर्जुन मुण्डा की जिद के आगे भाजपा झुकी। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर में वरिष्ठ नेता चमन लाल गुप्ता का विधान परिषद चुनाव में कथित रूप से क्रास वोटिंग करना और महाराष्ट्र के वरिष्ठ भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे का दूसरी पार्टी में जाने की अफवाहें फैलाना भी पार्टी के लिए गंभीर विषय रहे हैं। कुल मिला कर पार्टी के लिए सबसे बड़ी समस्या ये है कि वाजपेयी व आडवाणी के जमाने की एकजुटता कैसे लाई जाए।
कांग्रेस की स्थिति अलग ही है। वहां एक ही परिवार की चलती है। फिर उसके आगे किसी की नहीं चलती। यदि कोई नाटक करता है तो बाहर हो जाता है और कहीं का नहीं रहता। कर्नाटक की तरह कांग्रेस को भी अपने मुख्यमंत्री बदलने पड़े हैं, मगर उसको ऐसा करने में कोई जोर नहीं आया। भ्रष्टाचार के आरोप के बाद अशोक चव्हाण को जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो उन्होंने उफ तक नहीं की। आंध्र प्रदेश में के. रोसैया को हटाया गया तो वे कुछ नहीं बोले। अरुणाचल में दोरजी खांडू की हैलीकॉप्टर हादसे में मृत्यु के बाद जब उनकी जगह नया मुख्यमंत्री चुनने की स्थिति आई तो सभी विधायकों ने दिल्ली दरगार के आदेश को माना। इसी प्रकार केरल में मुख्यमंत्री पद के अनेक दावेदार होने के बावजूद ऊपर से जिस पर हाथ रखा गया, उसे ही सभी ने स्वीकार किया।