मित्रों,मैं नहीं जानता कि आपने कभी कंडोम का सदुपयोग या दुरूपयोग किया है या नहीं लेकिन मुझे इस बात का पूरा यकीन है कि आपको यह पता होगा कि एक कंडोम का दोबारा प्रयोग नहीं किया जा सकता। एक बार उपयोग में लाने के बाद उसे फेंक देना पड़ता है। लेकिन इसके साथ ही मुझे इस बात का भी पक्का यकीन है कि आपने कभी सोंचा नहीं होगा कि 26-11 के आतंकवादियों की गोलियों को अपने जिस्म पर झेलकर देश का माथा गर्वोन्नत करनेवाले कमांडो की इन कंडोमों के साथ कोई समानता भी हो सकती है। परन्तु सच तो यही है कि हमारी वर्तमान केंद्र सरकार इन परमवीरों को कंडोमों से ज्यादा मूल्य नहीं देती। संकट के समय यूज किया और फिर छोड़ दिया अपने हाल पर जीने और मरने के लिए। एनएसजी में भर्ती होने या 26-11 को कार्रवाई के लिए जाते समय कमांडो सुरेंद्र सिंह या अन्य ने यह सोंचा भी नहीं होगा कि मुठभेड़ में अपंग होने के बाद उनके साथ उनकी केंद्र सरकार और सेना उनके साथ इस तरह का व्यवहार करेगी।
मित्रों,गत 23 नवंबर को एन.एस.जी. के घायल कमांडो सुरेन्द्र ने आरोप लगाया है कि उन्हें सरकार की ओर से आज तक मदद के नाम पर एक रुपया भी नहीं मिला। सरकार ने उनके इलाज के लिए भी कोई पैसा नहीं दिया। उसे 13 महीनों से कोई पेंशन भी नहीं मिली है। इस बीच सुरेन्द्र सिंह के आरोप का जवाब देते हुए सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने इस आरोप को झूठा बताते हुए कहा कि सरकार द्वारा सुरेंद्र सिंह को 31 लाख रुपए दिए जा चुके हैं और हर माह 25 हजार रुपए पैंशन के तौर पर दिए जा रहे हैं। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने साफ किया है कि कमांडो का मामला रक्षा मंत्रालय से जुड़ा है और वह इस मामले की जांच करेंगे। रक्षा मंत्रालय ने भी एनएसजी कमांडो की शिकायतों पर गौर करने की बात कही है। मंत्रालय के सूत्रों ने कहा है कि कमांडो सुरेंद्र सिंह को इसी 16 नवम्बर को ही सूचित कर दिया था उनकी 31 लाख रुपए की पैंशन राशि उनके खाते में जमा हो रही है और 25 रुपए प्रतिमाह पैंशन भी स्वीकृत हो गई है। ऑपरेशन को अंजाम देते वक्त आतंकियों के ग्रेनेड से सुरेन्द्र बुरी तरह से घायल हो गए। धमाके की वजह से वह दोनों कानों से बहरे हो गए। साथ ही उनके कंधे और पांव में भी गहरी चोटें आईं। इसके बाद सुरेन्द्र को पता चला कि सेना के अफसरों ने अपने बहादुर सिपाहियों के हिस्से की आर्थिक मदद को डकार लिया है। सुरेन्द्र सिंह के मुताबिक ऑपरेशन मुंबई हमले में आतंकियों से मुकाबला करने वाले एनएसजी कमांडोज़ को 26 जनवरी, 2009 को वीरता पुरस्कारों से सम्मानित किया जाना था, लेकिन इसमें उनका और 8 ऐसे कमांडोज़ का नाम नहीं था, जो ऑपरेशन के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गए थे। इस बारे में जब इन 9 कमांडोज़ ने सीनियर ऑफिसर्स से पूछा कि अवॉर्ड लिस्ट में उनका नाम शामिल क्यों नहीं है, तो अधिकारियों ने बताया कि आपने आर-पार की लड़ाई में हिस्सा लिया है। इसलिए आपको बाद में बड़े अवॉर्ड से सम्मानित किया जाएगा। उन्हें बताया गया कि 15 अगस्त, 2009 को राष्ट्रपति के हाथों उन्हें अवॉर्ड मिलेगा। ये कमांडो इंतजार करते रहे, 15 अगस्त को भी इन्हें अवॉर्ड नहीं मिला। दोबारा पूछने बताया गया कि अगले साल जनवरी में सम्मान दिया जाएगा, लेकिन उन्हें तब भी नहीं मिला। सुरेन्द्र का कहना है कि इसके बाद जब उनके एक साथी ने आरटीआई के माध्यम से अवॉर्ड्स के बारे में जानकारी ली, तो पता चला कि उन सभी 9 कमांडोज़ के नाम की सिफारिश ही नहीं की गई थी। साफ था कि सेना के ऑफिसर टाल-मटोल करके झूठे आश्वासन दे रहे थे। यही नहीं, इस दौरान यह भी पता चला कि जवानों के लिए आई आर्थिक मदद में भी हेराफेरी की गई है। कुछ रकम का हिसाब नहीं था, तो कुछ को 3-4 कमांडोज़ में ही आवंटित करके औपचारिकता निभा दी गई थी। सुरेन्द्र का आरोप है कि इन सब बातों का विरोध करने पर उन्हें मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर सेना में काम करने के लिए पूरी तरह से अयोग्य घोषित कर दिया गया। सुरेन्द्र का कहना है कि उन्हें जानबूझकर नौकरी के 15 साल पूरा करने से पहले ही रिटायर कर दिया गया। उन्हें तब सेवा मुक्त किया गया, जब उन्हें सर्विस में 14 साल, 3 महीने और 10 दिन हो चुके थे। रिटायरमेंट के बाद जब उन्होंने सेना के ग्रेनेडियर्स रेकॉर्ड्स में पेंशन के लिए अर्जी दी, तब तो उसे यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उन्होंने 15 साल की नौकरी पूरी नहीं की है। इस बात को 2 साल बीत गए हैं लेकिन अभी तक उन्हें पेंशन नहीं दी गई। वह अपनी जमा पूंजी से ही इलाज करा रहे हैं। अभी तक 1 लाख रुपये से ज्यादा खर्च कर चुके हैं। सुरेन्द्र का आरोप है कि उन्होंने अपने हक के लिए आवाज उठाई, इसीलिए उसे 15 साल पूरा करने से पहले ही नौकरी से निकाल दिया गया। सुरेन्द्र ने कहा कि जेल में बिरयानी खाने वाला कसाब लोगों को याद है, लेकिन अपनी जान दांव पर लगाने वाले NSG कमांडो किसी को याद नहीं। उनके मुताबिक ऑफिसर्स की गड़बड़ी और रवैये से नाराज कुछ लोगों ने या तो नौकरी छोड़ दी, या फिर उन्हें मजबूर कर दिया गया।
मित्रों,उसी आपरेशन ‘ब्लैक टार्नेडो’ में शामिल रहे कमांडो सुनील जोधा को आतंकियों से आमने-सामने की लड़ाई के दौरान सात गोलियां लगीं थी। यहाँ तक कि अब भी उसके सीने में एक गोली मौजूद है। डॉक्टरों की टीम ने उन्हें छह महीने और अपनी निगरानी में रखे जाने की सिफारिश की थी। इसके बावजूद उन्हें एनएसजी से वापस मूल यूनिट में भेज दिया गया। इसी प्रकार कमांडो दिनेश साहू के पैर में कई गोलियां लगी थीं लेकिन सम्मान की बजाय उन्हें मीडिया में जाने पर गोली मार देने की धमकी दी गई। कमांडो सूबेदार फायरचंद को पैर में गोलियाँ लगीं। कोई सम्मान नहीं मिला तो हार कर वीआरएस ले लिया। कमांडो राजबीर गंभीर रूप से घायल हुए लेकिन जब उन्होंने पदक की बात की तो एनएसजी ने उन्हें भगोड़ा दिखा कर आठ-नौ महीने का वेतन रोक दिया और उनका सर्विस रिकार्ड भी खराब कर दिया गया। क्या देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देनेवालों के साथ दुनिया के किसी भी अन्य देश में ऐसा सलूक किया जाता है?
मित्रों,सवाल हजारों हैं और जवाब है कि है ही नहीं। अगर जवाब है भी तो इस सरकार के कहे पर यूँ तो विश्वास करना ही मुश्किल है फिर भी अगर यह विश्वास कर भी लिया जाए कि वह सच बोल रही है तो प्रश्न यह उठता है कि मुआवजा या अवकाश-प्राप्ति लाभ देने और पेंशन निर्धारित करने में इतनी देरी क्यों हुई? क्यों कुछ ही दिन या महीने के भीतर पैसा नहीं दे दिया गया? देश के लिए जान पर खेलने और अपंग हो गए इन जांबाजों को क्यों वीरता पुरस्कार नहीं दिए गए? क्या सरकार या सेना को इनकी वीरता पर संदेह था या है? क्या वीरता पुरस्कारों पर पहला हक इनका नहीं था या है? क्या इनकी वीरता सेना या सरकार द्वारा स्थापित वीरता की परिभाषा में नहीं आती? अगर इसी कारण से ऐसा हुआ है तो क्या सेना या सरकार बतायेगी कि उनके अनुसार वीरता की क्या परिभाषा होती है? क्या भ्रष्टाचार के कैंसर ने हमारी सेना को भी अपनी गिरफ्त में नहीं ले लिया है? क्या वीरता पुरस्कारों में भी अधिकारी हिस्सा बाँटते हैं? कुछ भी संभव है वर्तमान परिवेश में,कुछ भी असंभव या अनहोनी नहीं। क्या सुरेंद्र सिंह को इसलिए एक भी पैसा देने में 4 साल नहीं लग गए क्योंकि उनके मामले को देखनेवाले सेना के अधिकारियों को उस राशि में से कुछ हिस्सेदारी चाहिए थी? सवाल तो यह भी है कि हर तरह से योग्य होने पर भी क्यों सेना में जवानों को बिना घूस दिए नौकरी नहीं मिलती? कम-से-कम बिहार में ऐसी ही हो रहा है। आज के बिहार में क्यों लगभग प्रत्येक गाँव में एक ऐसा दलाल मौजूद है जो पैसे लेकर सेना में नौकरी दिलवाता है? क्या इस कमांडो प्रकरण से यह स्पष्ट नहीं हो गया है कि वीरता पुरस्कार देने की प्रक्रिया पूरी तरह से निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं है? क्या सरकार को इसे निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के उपाय नहीं करने चाहिए? हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जो समाज और राष्ट्र उसकी रक्षा के लिए जान पर खेलनेवाले वीर सपूतों का सम्मान नहीं करता उसको गुलाम होते देर नहीं लगती।
ब्लॉग: ब्रज की दुनिया