गुरूदेव जी ने कच्ची गढ़ी त्यागने की योजना बनाई। दो जवानों को साथ चलने को कहा। शेष पाँचों को अलग अलग मोर्चो पर नियुक्त कर दिया। भाई जीवन सिंघ, जिसका डील-डौल, कद-बुत तथा रूपरेखा गुरूदेव जी के साथ मिलती थी, उसे अपना मुकुट, ताज पहनाकर अपने स्थान अट्टालिका पर बैठा दिया कि शत्रु भ्रम में पड़ा रहे कि गुरू गोबिन्द सिंघ स्वयँ हवेली में हैं, किन्तु उन्होंने निर्णय लिया कि यहाँ से प्रस्थान करते समय हम शत्रुओं को ललकारेगें क्योंकि चुपचाप, शान्त निकल जाना कायरता और कमजोरी का चिन्ह माना जाएगा और उन्होंने ऐसा ही किया।
देर रात गुरूदेव जी अपने दोनों साथियों दया सिंह तथा मानसिंह सहित गढ़ी से बाहर निकले, निकलने से पहले उनको समझा दिया कि हमे मालवा क्षेत्र की ओर जाना है और कुछ विशेष तारों की सीध में चलना है। जिससे बिछुड़ने पर फिर से मिल सकें। इस समय बूँदाबाँदी थम चुकी थी और आकाश में कहीं कहीं बादल छाये थे किन्तु बिजली बार बार चमक रही थी। कुछ दूरी पर अभी पहुँचे ही थे कि बिजली बहुत तेजी से चमकी।
दया सिंघ की दृष्टि रास्ते में बिखरे शवों पर पड़ी तो साहिबज़ादा अजीत सिंह का शव दिखाई दिया, उसने गुरूदेव जी से अनुरोध किया कि यदि आप आज्ञा दें तो मैं अजीत सिंह के पार्थिव शरीर पर अपनी चादर डाल दूँ। उस समय गुरूदेव जी ने दया सिंह से प्रश्न किया आप ऐसा क्यों करना चाहते हैं। दयासिंघ ने उत्तर दिया कि गुरूदेव, पिता जी आप के लाड़ले बेटे अजीत सिंह का यह शव है।