सिक्ख भी यह मन बनाए बैठे थे कि सतगुरू जी को किसी भी दशा में शहीद नहीं होने देना। वे जानते थे कि गुरूदेव जी द्वारा दी गई शहादत इस समय पँथ के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध होगी। अतः भाई दया सिंह जी ने एक युक्ति सोची और अपना अन्तिम हथियार आजमाया। उन्होंने इस युक्ति के अन्तर्गत सभी सिंहों को विश्वास में लिया और उनको साथ लेकर पुनः गुरूदेव जी के पास आये।
और कहने लगे: गुरू जी, अब गुरू खालसा, पाँच प्यारे, परमेश्वर रूप होकर, आपको आदेश देते हैं कि यह कच्ची गढ़ी आप तुरन्त त्याग दें और कहीं सुरक्षित स्थान पर चले जाएं क्योंकि इसी नीति में पँथ खालसे का भला है।
गुरूदेव जी ने पाँच प्यारों का आदेश सुनते ही शीश झुका दिया और कहा: मैं अब कोई प्रतिरोध नहीं कर सकता क्योंकि मुझे अपने गुरू की आज्ञा का पालन करना ही है।