एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य में पंचायत चुनाव लड़ने वाले कैंडिडेट्स के लिए मिनिमम एजुकेशन क्वालिफिकेशन जरूरी होगा। यह फैसला स्वागत योग्य है। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार के एक फैसले के खिलाफ दाखिल की गई जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद दिया है।
दरअसल, हरियाणा में जल्द ही पंचायत चुनाव होने वाले हैं। वहां सरपंचों का कार्यकाल 25 जुलाई- 2015 को खत्म हो चुका है। चुनाव से ठीक पहले 11 अगस्त को हरियाणा सरकार ने पंचायती राज कानून में संशोधन किया था। इस संशोधन के अंतर्गत पंचायत चुनाव लडने के लिए सरकार ने 4 शर्ते लगाई थीं।
इन शर्तों में चुनाव लड़ने वाले जनरल के लिए दसवीं पास, दलित और महिला के लिए आठवीं पास होना जरूरी है। इसके अलावा बिजली बिल के बकाया ना होने, बैंक का लोन न चुकाने वाले और गंभीर अपराधों में चार्जशीट होने वाले लोग भी चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। यानी की राज्य सरकार के नये नियमों के मुताबिक 43 फीसदी लोग पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। लेकिन एक जनहित याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में सरकार के इस फैसले को चुनौती दे दी गई थी, जिस पर कोर्ट में लगातार सुनवाई करने के बाद 28 अक्टूबर को बहस पूरी करने के बाद गुरूवार को अहम फैसला सुनाया है।
बहरहाल, सरकार के नये नियम पर बहस के कई दूसरे पहलू हो सकते हैं , लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पढ़े-लिखे ही पंचायत चुनाव लड़ेंगे इस बात से सहमत हुआ जा सकता है। जब मैंने द हंगर प्रोजेक्ट मप्र में महिला जन प्रतिनिधियों के साथ पांच सालों तक यानी की 2005 से 2010 तक काम किया तब हालात दूसरे थे, परन्तु आज अधिकांश लड़कियां पढ़ी-लिखी है और दूर दराज के क्षेत्रों में यदि नहीं भी है, तो ये समाज की जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों को पढ़ाए और सर्वशिक्षा अभियान के तहत बने स्कूलों में नियमित भेजे और सरकार प्रदत्त सुविधाएं उठाए।
ये फैसले अब धीरे-धीरे स्थानीय निकायों, संस्थाओं और विधानसभाओं से होते हुए संसद तक आने चाहिए ताकि देश में कम से कम सातवी आठवी पास लोग शीर्ष नेतृत्व पर बैठकर दुनिया में देश का नाम खराब ना कर सकें। कम से उच्चारण दोष तो नहीं होगा और कुछ तो समझ होगी कि वे पब्लिक डोमेन में क्या कह रहे है, क्या बोल रहे है और क्या कर रहे हैं? व्यवहार में तर्क-कुतर्क हो सकते है, आप कहेंगे कि हमारे शिक्षा मंत्री जैसे लोग जो डिग्रियां हासिल कर लेते हैं, पर फिर भी चलेगा, थोड़े समय बाद लोग इन्हें भी बाहर कर देंगे पर अब शिक्षा का उजियारा और पढ़ने का महत्त्व हमारी विधायिका में आना ही चाहिए, कब तक आरक्षण, दलित, अनपढ़ और पिछड़े होने का फ़ायदा आप लेते रहेंगे और विधायिका को कमजोर करते रहेंगे?
पंचायत में एक जमाने में विकास के नाम पांच सालों में दस से पंद्रह हजार रुपये आते थे पर, पिछले कई बरसों में विभिन्न वित्त आयोगों के लाखों रुपये, नरेगा से लेकर तमाम तरह के निर्माण के लिए अमूमन पंचायतों में तीस से चालीस लाख तक आने लगे है और जरूरी है कि सरपंच और पंच पढ़े लिखे हों ताकि ज्यादा पढ़ा-लिखा सचिव या जनपद स्तर का अधिकारी, उसका बाबू या जिला पंचायत सीईओ रुपया खाने में थोड़ा तो झिझके और सही रिकॉर्ड तो मेंटेन किये जा सकें।
देश भर के समाज सेवी और महिलाएं अब इसका पुरजोर विरोध करेंगे, कर भी रहे हैं, परन्तु बगैर दबाव में आए यह अधिनियम देश भर के राज्यों में अविलम्बित रूप से लागू किया जाना चाहिए और सारे राज्यों को आगामी विधान सभाओं के सत्रों में पंचायती राज अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिए।