समलैंगिकता मामले में आज से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होगी। आईपीसी की धारा 377 में दो समलैंगिक वयस्कों के बीच सहमति से शारीरिक संबंधों को अपराध माना गया है और सजा का प्रावधान है। दायर याचिकाओं में इसे चुनौती दी गई है। वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता मामले में सुनवाई टालने के केंद्र सरकार के अनुरोध को सोमवार को ठुकरा दिया।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने कहा इसे स्थगित नहीं किया जाएगा। जब एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता केंद्र सरकार की तरफ से पैरवी कर रहे हैं तो वे इस अहम मामले को टालना क्यों चाहते हैं।दिल्ली हाईकोर्ट ने 2 जुलाई, 2009 को वयस्कों के बीच समलैंगिकता को वैध करार देते हुए उसे अपराध की श्रेणी से बाहर रखने की बात कही थी।
फैसले में कहा था कि 149 वर्षीय कानून ने इसे अपराध बना दिया था, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन था। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिक संबंधों को गैरकानूनी करार दिया था। फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिकाएं दायर की गईं। इसे भी खारिज कर दिया गया।
इसके बाद क्यूरेटिव पिटीशन (एक तरह की पुर्नविचार याचिका जिसे आमतौर पर जज अपने चेंबर में ही सुनते हैं) दायर की गईं। इसमें प्रभावित पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट से अपील में कहा कि वो अपने मूल फैसले पर फिर से विचार करे। आईआईटी के 20 पूर्व और मौजूदा छात्रों द्वारा दायर याचिका में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को दोबारा बहाल करने की मांग की गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने 8 जनवरी को समलैंगिकता मामले को 5 जजों की संविधान पीठ को सौंपा था। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई वाली इस बेंच में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस इंदु मल्होत्रा हैं।
नाज फाउंडेशन समेत कई प्रतिष्ठित लोगों द्वारा दायर याचिकाओं में भी 2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई है। जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐसे लोग जो अपनी पसंद से जिंदगी जीना चाहते हैं, उन्हें कभी भी डर की स्थिति में नहीं रहना चाहिए। स्वभाव का कोई निश्चित मापदंड नहीं है। नैतिकता उम्र के साथ बदलती है।