कर्नाटक जल संकट के शिकंजे में है, जिसकी शुरुआत वर्षो पहले हो गई थी. राज्य के उत्तरी हिस्सों में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक के चिलचिलाते स्तर तक पहुंच गया है. बेंगलुरु, जिसे हाल तक ‘गार्डन सिटी’ और ‘झीलों के शहर’ के रूप में जाना जाता था, में पहली दफा हुआ है कि तापमान 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है, जो सामान्य से पांच डिग्री सेल्सियस ज्यादा है. शहर के लिए यह खतरे की घंटी है. यह पहली बार है जब बेंगलुरु में तापमान इतना चढ़ा है. यह भूक्षेत्र घने दरख्तों, झीलों और खुली सांस लेने के लिए माकूल स्थलों के लिए जाना जाता रहा है. लेकिन बढ़ती जनसंख्या, सीसे और कंक्रीट के बढ़ते जंगलों ने कभी ठंडे और प्रदूषण-रहित रहे शहर का तेजी से नक्शा ही बदल डाला है.
इससे भी ज्यादा चिंताजनक यह कि उत्तरी कर्नाटक में गंभीर जल संकट ने वहां के नागरिकों को जल और नौकरी की तलाश में पलायन करके बेंगलुरु, मैसूर और दक्षिण कर्नाटक के अन्य शहरों में जाने को विवश कर दिया है. पारा का स्तर चढ़ने, जलाभाव, आजीविका के अन्य साधनों की कमी और मनरेगा जैसी योजनाओं की नाकामी जैसे कारणों से राज्य के उत्तरी हिस्से के कलबुर्गी, यादगिर, बिदर, रायचुर, विजयपुर और बगलकोट जैसे जिलों से हजारों लोगों को पलायन करना पड़ा है. इन जिलों के अनेक गांव भूतहा गांव हो गए हैं, जहां केवल बीमार, अशक्त और वृद्धजन ही रह गए हैं.
हालांकि बेकारी के दिनों में उत्तर कर्नाटक के जिलों से दूसरी जगहों पर जाने का सिलसिला पीढ़ियों से चला आया है, लेकिन बीते दो वर्षो से गंभीर सूखे की स्थिति के चलते इस सिलसिले ने स्थायी शक्ल अख्तियार कर ली है. कभी धनी किसान रहे लोग आज बेंगलुरु और अन्य बड़े शहरों में निर्माण मजदूर बनने को विवश हो गए हैं. सबसे ज्यादा चिंता में डालने वाली बात यह है कि लोग अपने पशुओं और संपत्ति को इस इच्छा से बेच रहे हैं, जैसे उन्हें अब कभी लौटना ही न हो.
समाज शास्त्री कहते हैं कि प्रतिष्ठा का भी प्रश्न है. कठिन समय में लोग स्थानीय इलाकों में काम करने से बचते हैं, क्योंकि यह कहना उन्हें सम्मान की बात लगती है कि वे ‘बड़े शहरों’ में ऊंची पगार पर काम कर रहे हैं. इंस्टीटय़ूट ऑफ सोशल एंड इकनॉमिक चेंज (आईएसईसी) के प्रो. आरवी देशपांडे कहते हैं, ‘सूखे से खेती-किसानी से जुड़ीं गतिविधियां पंगु या बाधित हो जाती हैं, और वैकल्पिक रोजगार के लिए किसानों के पास बड़े शहरों की ओर पलायन ही एकमात्र चारा बचता है. लेकिन स्थानीय स्तर पर शारीरिक कार्य करने में उनका अहं आड़े आता है.’
राज्य सरकार के आग्रह पर केंद्र की एक टीम ने उत्तर कर्नाटक के सूखा-पीड़ित इलाकों का दौरा किया है. कर्नाटक, जो दो साल से लगातार सूखे का सामना कर रहा है, ने मौजूदा रबी सीजन में उत्तर-पश्चिम मॉनसून की कमी के कारण उत्तर कर्नाटक के 12 जिलों को सूखा-प्रभावित घोषित किया है. मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने बताया है कि 2015-16 (जुलाई-जून) के मौजूदा रबी सीजन में कुल 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई की गई थी. इसमें से करीब 33 प्रतिशत क्षेत्र सूखे से प्रभावित हुआ है.
सूखे से राज्य के सभी प्रमुख जलाशय सूख रहे हैं. जलाशयों में कुल क्षमता का मात्र 24 प्रतिशत ही बचा रह गया है. तुंगभद्रा, अलमाटी, घटाप्रभा, नारायनपुरा और मालाप्रभा सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं. संकट की गंभीरता को भांपते हुए राज्य सरकार ने जलाशयों पर बंदिश लगा दी है कि बारिश के हालात बनने तक खेतिहर उद्देश्यों के लिए जल न छोड़ें. कबिनि और केआरएस जलाशयों को निर्देश दिए गए हैं कि सिंचाई के लिए पानी नहीं छोड़ें बल्कि बेंगलुरु की पेयजल की मांग को पूरा करने की गरज से इसे बचाकर रखें.
इस वर्ष के खरीफ सीजन में भी राज्य ने दक्षिण-पश्चिम मॉनसून की बारिश में 20 प्रतिशत की कमी के कारण 27 जिलों को सूखा-ग्रस्त घोषित किया था. प्रसाद ने कहा कि सूखा-पीड़ित कुल 176 तालुकाओं में से 136 में 33 प्रतिशत कृषि और बागवानी की फसलें प्रभावित हुई हैं. बताया कि गंभीर जल संकट का सामना कर रहे 385 गांवों में सरकार ने टैंकरों से जलापूर्ति करने के बंदोबस्त किए हैं. वह बताते हैं, ‘इन गांवों में जलापूर्ति के लिए करीब 882 टैंकरों को जुटाया गया है.
सूखती धरती की गहराई से निकाले गए फ्लोराइड-युक्त पानी को पीने के दुष्प्रभावों से बचने के लिए अनेक गांव वाले पेयजल खरीद रहे हैं. जनता दल (सेक्युलर) नेता वाईएसवी दत्ता ने कहा, ‘किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा 800 को पार कर गया है, और इसके एक हजार तक पहुंच जाने का अंदेशा है; 136 तालुकाओं को सूखा-ग्रस्त घोषित कर दिया गया है, लेकिन सरकार सूखा राहत उपायों के लिए पर्याप्त धन व्यय नहीं कर रही. सूखे से मुकाबला करने के लिए सरकार ने कोई कार्रवाई योजना भी नहीं बनाई है.’
कर्नाटक बीते दो सालों से सूखे का सामना करना पड़ रहा है, स्थानीय लोगों को अपना जीवन बचाए रखने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है, क्योंकि महिलाओं और बच्चों को पानी की तलाश में अपने जीवन तक को जोखिम में डालना पड़ रहा है. स्थिति इस कदर खराब हो चुकी है कि स्कूली छात्रों को परीक्षा छोड़कर पानी जुटाने के लिए उनके परिजन कह रहे हैं. स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पीने और दैनिक जरूरतों के लिए पानी लाने के लिए लोगों को मीलों जाना पड़ रहा है.
बीते वर्ष मॉनसून पर्याप्त नहीं था, इसलिए बिजली उत्पादन पर भी असर पड़ा है. किसी को सहसा विश्वास नहीं होता कि देश के ग्लोबल शहर बेंगलुरु को हर दिन पांच से छह घंटे की बिजली कटौती का सामना करना पड़ रहा है. शहर में बिजली संकट के चलते उद्योगों ने साप्ताहिक अवकाश के विभिन्न दिन तय कर लिए हैं. जब बेंगलुरु जैसे ग्लोबल शहर का यह हाल है, तो राज्य के टू-टीयर/थ्री-टीयर शहरों में बिजली की स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. राज्य में बिजली की कुल मांग 6500 से 6700 मेगावॉट के बीच है. राज्य में 21 बिजली उत्पादन संयंत्र हैं, जिनमें करीब 4,069 मेगावॉट बिजली का उत्पादन हो रहा है, जबकि इन संयंत्रों की स्थापित क्षमता 9,021 मेगावॉट है. उत्पादन में कमी ऐसे समय हुई है, जब राज्य को निवेश आकर्षित करने के लिए पड़ोसी राज्यों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है.
बेंगलुरु में करीब चार लाख टय़ूबवेल/बोरवेल हैं. इसलिए उसके लिए जरूरी है कि इस्तेमाल किए जा रहे कुछ पानी को रिचार्ज करने के उपाय करे. अभी शहर में हर दिन 1400 मिलियन लीटर्स की खपत है, और इसका बहुत थोड़ा हिस्सा ही ट्रीट किया जाता है. रेनवॉटर हारवेस्टिंग विशेषज्ञ एस. विश्वनाथ कहते हैं कि पानी को ट्रीट किए जाने से जलदायी स्तर और वेटलैंड रिचार्ज हो सकेंगे. वह कहते हैं, ‘क्षमताएं अपार हैं. बोरवेलों को खोदने पर करीब 8 हजार करोड़ रुपये की लागत आई है. कम से कम इस निवेश का तो सदुपयोग कर लिया जाना चाहिए.’ विश्वनाथ कहते हैं कि राज्य को आंध्र प्रदेश का अनुसरण करना चाहिए, जहां लोगों को बोरवेल खोदने और उन्हें साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.
कर्नाटक सरकार के खनन एवं भूगर्भ विज्ञान विभाग तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग के एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि बेंगलुरु में बोरवेल जल का 52 प्रतिशत तथा नलों के पानी का 59 प्रतिशत पीने लायक नहीं है. इनमें क्रमश: 8.3 तथा 19 प्रतिशत ई. कोली बैक्टीरिया पाया गया है. कारण यह कि बेंगलुरु का कम से कम आधा पानी तो सीवेज वॉटर से ही प्रदूषित है. 1790 में एक ब्रिटिश कैप्टन ने बेंगलुरु को एक हजार झीलों की भूमि करार दिया था. आज उन एक हजार में से 200 से भी कम झीलें बची रह गई हैं, और ये भी किसी सीवेज टैंक से ज्यादा कुछ नहीं हैं. सीवेज वॉटर भूमिगत जल को प्रदूषित करता है, और यह प्रदूषित जल रिस कर बोरवेल को प्रदूषित कर देता है.