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Guru Nanak Dev Ji Stories सच्चे व्यापारी नानक

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Guru Nanak Dev Ji Stories सच्चे व्यापारी नानक

आज से पाँच सौ वर्ष पहले, संवत् 1526 की कार्तिकी पूर्णिमा के शुभ दिन पंजाब में लाहौर नगर के पास तलवंडी नामक स्थान पर एक खत्री परिवार में एक बालक का जन्म हुआ। इसका नाम नानक रखा गया। इसके पिता का नाम कल्याणचन्द था, परन्तु लोग इन्हें कालू नाम से ही पुकारते थे।
 
जब नानक सात वर्ष के हुए तो इन्हें पढ़ने के लिए पाठशाला भेजा गया। पण्डित जी ने इनकी पाटी पर गिनती लिखकर दी। नानक ने कहा- पण्डित जी! यह विद्या तो संसार के झगड़े में डालने वाली है, आप तो मुझे वह विद्या पढ़ाएँ, जिसे जानकर सच्चा सुख मिलता है। मुझे तो प्रभु नाम का उपदेश दें। यह सुनकर पण्डित जी हैरान रह गए, फिर भी नानक जी ने दो वर्ष तक पढ़ाई की। नानक प्रायः दूसरे बच्चों की तरह खेल- कूद में समय नहीं बिताते थे। परन्तु जब भी उन्हें देखो, आसन लगाकर भगवान् के भजन में मस्त होते। वे दूसरे बच्चों को भगवान के भजन का उपदेश देते।
 
एक बार इनके पिता ने इन्हें बीस रुपये दिए और कहा कि लाहौर जाकर कोई सच्चा व्यापार करो, जिससे कुछ लाभ हो। इनके साथ अपने विश्वासी कर्मचारी बाला को भी भेजा। नानक बाला को साथ लेकर लाहौर की ओर चल पड़े। जब वे जूहड़काणे के निकट जंगल में पहुँचे तो देखा कुछ साधु तपस्या कर रहे हैं। नानक ने पास जाकर उनके चरण छुए। पता लगा कि वे सात दिन से भूखे हैं। नानक ने बाला से कहा- इससे बढ़कर और सच्चा व्यापार क्या होगा! आओ, इन साधुओं को भोजन कराएँ। ऐसा कहकर नानक उनके निकट जा बैठे और बीस रुपये भेंट कर दिए। उनमें बड़े महात्मा ने कहा- बेटा, रुपये हमारे किस काम के? तुम्हे ये रुपये व्यापार के लिए तुम्हारे पिता ने दिये हैं, तुम्हें उनकी आज्ञा के अनुसार ही काम करना चाहिए।
 
नानक ने कहा- महाराज! पिताजी ने मुझे सच्चा व्यापार करने के लिए भेजा है, इसीलिए मैं यह खरा व्यापार कर रहा हूँ। मैं और सब व्यापार झूठे समझता हूँ।
 
अब महात्मा जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और बोले- तू सच्चा प्रभु- भक्त है, इन रुपयों से खाने का सामान ले आ। नानक ने बाला को साथ लेकर पास के गाँव से आटा, दाल, चावल, घी, शक्कर आदि सब वस्तुएँ लाकर महात्मा जी को भेंट कर दीं। फिर महात्माओं के चरण छूकर वे घर को वापस लौट पड़े। घर पहुँचने पर जब उनके पिता को यह मालूम हुआ, तो उन्होंने नानक को बहुत पीटा। नानक की बहिन नानकी ने बीच में पड़कर बड़ी मुश्किल से उन्हें छुड़ाया।
 
गाँव के हाकिम राव बुलार नानक के गुणों को जानते थे। उन्होंने कालू को बुलाकर बीस रुपये दे दिए और कहा कि इस बालक को कभी कुछ मत कहना। यह एक महान् पुरुष है। गांव के हाकिम के समझाने से कालू ने नानक को उसके बहनोई के पास सुलतानपुर भिजवा दिया। ये बड़े सज्जन पुरुष थे, ये नानक जी को सदा भगवान् के भजन में आनन्द लूटते देखते। यहीं नानक जी का विवाह हुआ और दो पुत्र भी हुए। यहाँ पर नानक जी ने मोदीखाने का काम किया। कई वर्ष काम करने के बाद इनका मन संसार से उठ गया। वे घर से चले गए। परन्तु तीसरे दिन ही वे बहनोई के घर लौट आए। साधुओं के वेश में इन्होंने लोगों को अपनी मोदीखाने की दुकान लूटने की आज्ञा दे दी और आप गाँव के बाहर जाकर प्रभु- भजन करने लगे। लोगों ने दुकान को जी भरकर लूटा।
 
उधर समाचार गाँव के नवाब दौलत खाँ को मिला तो वे आग- बबूला हो उठे। उन्होंने नानक के बहनोई को बुलवाया और कहा कि सरकारी मोदीखाना को लुटाने का सारा दोष तुम और नानक दोनों पर है, मैं अभी हिसाब करता हूँ। जब हिसाब हुआ तो उल्टा नानक जी का सात सौ आठ रुपया नवाब की ओर निकला। सब हैरान रह गए। नानक के कहने पर यह रुपया गरीबों में बाँटा गया। अब तो नानक के दर्शनों को बहुत लोग आने लगे। प्रभु- भजन में बाधा देखकर नानक वहाँ से एमनाबाद में आकर लालू नामक बढ़ई के घर ठहरे।
 
एक दिन वहाँ के रईस भागू ने नानक जी को भोजन के लिए निमंत्रण दिया। इसी बीच लालू बढ़ई भी भोजन ले आया। नानक जी रईस का भोजन अस्वीकार कर लालू का भोजन करने लगे। अब भागूको बड़ा क्रोध आया। वह स्वयं उनकी सेवा में पहुँच इसका कारण पूछने लगा कि स्वादिष्ट और बढ़िया भोजन छोड़कर आपने नीच लालू का रूखा भोजन क्यों पसन्द किया? नानक जी ने कहा कि तुम भी अपना भोजन ले आओ। जब भोजन आ गया तो नानक जी ने एक हाथ में लालू की सूखी रोटी और दूसरे में भागू की बढ़िया रोटी लेकर जोर से दबाई। लोगों की हैरानी का कोई पार न रहा, जब लालू की रोटी से दूध की बूँदें और भागू की रोटी से खून की बूँदें टपकीं।
 
लोगों के पूछने पर उन्होंने बताया कि यह सूखी रोटी तो सच्चे खून- पसीने की कमाई की है और यह स्वादिष्ट भोजन गरीबों का खून चूस- चूसकर बनाया गया है। इसलिए सदा मेहनत और धर्म से ही धन कमाना चाहिए, वही फलता और फूलता है। भागू ने उनके चरण पकड़ लिए और शिष्य बन गया।
 
अब नानक देव जी मक्का- मदीना आदि सब स्थानों की यात्रा करने लगे। इनके हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शिष्य बने। सत्तर वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर छोड़ा। जीवन- भर वे धर्म और सच्चाई की राह बताते रहे और अमर हो गये।

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