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तात्या टोपे : बायोग्राफी

tatya tope biography

तात्या टोपे (अंग्रेज़ी: Tatya Tope, जन्म- 1814 ई., पटौदा ज़िला, महाराष्ट्र; मृत्यु- 18 अप्रैल, 1859, शिवपुरी, मध्य प्रदेश) को सन 1857 ई. के ‘प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ के अग्रणीय वीरों में उच्च स्थान प्राप्त है। इस वीर ने कई स्थानों पर अपने सैनिक अभियानों द्वारा उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात आदि में अंग्रेज़ी सेनाओं से कड़ी टक्कर ली और उन्हें बुरी तरह परेशान कर दिया। गोरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाते हुए तात्या टोपे ने अंग्रेज़ी सेनाओं के छक्के छुड़ा दिये। वे ‘तांतिया टोपी’ के नाम से भी विख्यात थे। अपनी अटूट देशभक्ति और वीरता के लिए तात्या टोपे का नाम भारतीय इतिहास में अमर है।

जन्म परिचय

तात्या टोपे का जन्म सन 1814 ई. में नासिक के निकट पटौदा ज़िले में येवला नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट तथा माता का नाम रुक्मिणी बाई था। तात्या टोपे देशस्थ कुलकर्णी परिवार में जन्मे थे।[1] इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के गृह-विभाग का काम देखते थे। उनके विषय में थोड़े बहुत तथ्य उस बयान से इकट्ठे किए जा सकते हैं, जो उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी के बाद दिया और कुछ तथ्य तात्या के सौतेले भाई रामकृष्ण टोपे के उस बयान से इकट्ठे किए जा सकते हैं, जो उन्होंने 1862 ई. में बड़ौदा के सहायक रेजीडेंस के समक्ष दिया था। तात्या का वास्तविक नाम ‘रामचंद्र पांडुरंग येवलकर’ था। ‘तात्या’ मात्र उपनाम था। तात्या शब्द का प्रयोग अधिक प्यार के लिए होता था। टोपे भी उनका उपनाम ही था, जो उनके साथ ही चिपका रहा। क्योंकि उनका परिवार मूलतः नासिक के निकट पटौदा ज़िले में छोटे से गांव येवला में रहता था, इसलिए उनका उपनाम येवलकर पड़ा।[2]

बिठूर आगमन

तात्या टोपे जब मुश्किल से चार वर्ष के थे, तभी उनके पिता के स्वामी बाजीराव द्वितीय के भाग्य में अचानक परिवर्तन हुआ। बाजीराव द्वितीय 1818 ई. में बसई के युद्ध में अंग्रेज़ों से हार गए। उनका साम्राज्य उनसे छिन गया। उन्हें आठ लाख रुपये की सालाना पेंशन मंजूर की गई और उनकी राजधानी से उन्हें बहुत दूर हटाकर बिठूर, कानपुर में रखा गया। यह स्पष्ट रूप से ऐसी स्थिति से बचने के लिए किया गया था कि वह अपने खोए हुए साम्राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए कुछ नई चालें न चल सकें। बिठूर से 12 मील दूर गंगा के तट पर छोटा-सा सुंदर नगर था।

वहाँ बाजीराव ने अपने लिए एक विशाल प्रासाद का निर्माण करवाया और अपना अधिकांश समय धार्मिक कार्यकलापों में व्यतीत करने लगे। तात्या टोपे के पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के कर्मचारी तथा उनके वफादार थे, इसीलिए वे भी परिवार सहित बाजीराव द्वितीय के पास 1818 ई. में बिठूर आ गए। रामकृष्ण टोपे के बयान के अनुसार तात्या अपने पिता की 12 संतानों में से दूसरे थे। उनका एक सगा और छह सौतेले भाई और चार बहनें थीं। यद्यपि तात्या अपने बच्चों के साथ अलग रहते थे, फिर भी सभी व्यवहारिक कार्यों के लिए उनका परिवार संयुक्त परिवार था।

युवावस्था और साथी

तात्या एक अच्छे महत्त्वाकांक्षी नवयुवक थे। उन्होंने अनेक वर्ष पेशवा बाजीराव द्वितीय के तीन दत्तक पुत्र- नाना साहब, बाला साहब और बाबा भट्ट के साहचर्य में बिताए। एक कहानी प्रसिद्ध है कि नाना साहब, उनके भाई, झाँसी की भावी रानी लक्ष्मीबाई, जिनके पिता उस समय सिंहासनच्युत पेशवा के एक दरबारी थे और तात्या टोपे, ये सभी आगे चलकर विद्रोह के प्रख्यात नेता बने। ये अपने बचपन में एक साथ युद्ध के खेल खेला करते थे और उन्होंने मराठों की वीरता की अनेकों कहानियाँ सुनी थीं, जिनसे उन्हें विद्रोह के लिए प्रेरणा प्राप्त हुई थी।

इस कहानी को कुछ इतिहासकार अप्रमाणिक मानते हैं। उनके विचार से गाथा के इस भाग का ताना-बाना इन वीरों का सम्मान करने वाले देश प्रेमियों के मस्तिष्क की उपज है। फिर भी यह सच है कि इन सभी का पेशवा के परिवार से निकटतम संबंध था और वह अपनी आयु तथा स्थिति भिन्न होने के बावजूद प्रायः एक-दूसरे के निकट आए होंगे। खोए हुए राज्य की स्मृतियाँ अभी ताजा ही थीं, धुंधली नहीं पड़ी थीं। साम्राज्य को पुनः प्राप्त करना और अपने नुक़सान को पूरा करना नाना साहब और उनके भाइयों के अनेक युवा सपनों में से एक स्वप्न अवश्य रहा होगा। वे सभी बाद में अपने दुर्बल पिता की तुलना में काफ़ी अच्छे साबित हुए थे।

युद्ध कला प्रशिक्षण

तात्या टोपे ने कुछ सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त तो किया था, किंतु उन्हें युद्धों का अनुभव बिल्कुल भी नहीं था। उन्होंने पेशवा के पुत्रों के साथ उस काल के औसत नवयुवक की भांति युद्ध प्रशिक्षण प्राप्त किया था। घेरा डालने और हमला करने का जो भी ज्ञान उन्हें रहा हो, वह उनके उस कार्य के लिए बिल्कुल उपयुक्त न था, जिसके लिए भाग्य ने उनका निर्माण किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने गुरिल्ला युद्ध जो उनकी मराठा जाति का स्वाभाविक गुण था, अपनी वंश परंपरा से प्राप्त किया था। यह बात उन तरीकों से सिद्ध हो जाती है, जिनका प्रयोग उन्होंने ब्रिटिश सेनानायकों से बचने के लिए किया।

‘टोपे’ उपाधि

बिठूर में उनकी योग्यताओं और महत्त्वाकांक्षाओं के लिए न के बराबर स्थान था और वह एक उद्धत्त व्यक्ति बनकर ही वहाँ रहते, यह बात इस तथ्य से स्पष्ट है कि वह कानपुर गए और उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी की नौकरी कर ली। किंतु शीघ्र ही हतोत्साहित होकर लौट आए। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक महाजनी का काम किया, किंतु इसे बाद में छोड़ दिया। क्योंकि यह उनके स्वभाव के बिलकुल प्रतिकूल था। तात्या के पिता पेशवा के गृह प्रबंध के पहले से ही प्रधान थे, इसलिए उन्हें एक लिपिक के रूप में नौकरी पाने में कोई कठिनाई नहीं हुई, किंतु इस नौकरी से भी वे अधिक प्रसन्न नहीं थे।

लिपिक पद पर कार्य करते हुए ही एक अन्य कर्मचारी की विश्वासघात संबंधी योजनाओं का पता लगाने में नवयुवक तात्या टोपे की योग्यता, तत्परता और चातुर्य से प्रभावित होकर पेशवा ने एक विशेष दरबार में 9 हीरों से जड़ी हुई एक टोपी उन्हें पुरस्कार स्वरूप दी। दरबार में उपस्थित लोगों ने ‘तात्या टोपे’ के नाम से उनकी जय-जयकार की। 1851 ई. में पेशवा की मृत्यु के पश्चात नाना साहब बिठूर के राजा हो गए और तात्या उनके प्रधान लिपिक बने। विचारधारा एक जैसी होने के कारण वे एक-दूसरे के इतना निकट आए, जितना कि पहले कभी नहीं थे और शीघ्र ही वह नाना के मुसाहिब के रूप में प्रसिद्ध हो गए।

व्यक्तित्व

तात्या टोपे के व्यक्तित्व में विशिष्ट आकर्षण नहीं था। जानलैंग ने जब उन्हें बिठूर में देखा था तो वे उनके व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं हुए थे। उन्होंने तात्या के विषय में कहा है कि- “वह औसत ऊंचाई, लगभग पांच फीट 8 इंच और इकहरे बदन के, किंतु दृढ़ व्यक्तित्व के थे। देखने में सुंदर नहीं थे। उनका माथा नीचा, नाक नासाछिद्रों के पास फैली हुई और दाँत बेतरतीब थे। उनकी आँखें प्रभावी और चालाकी से भरी हुई थीं। जैसी कि अधिकांश एशियावासियों में होती हैं, किंतु उनके ऊपर उनकी विशिष्ट योग्यता के व्यक्ति के रूप में कोई प्रभाव नहीं पड़ा।”

तात्या टोपे

‘बाम्बे टाइम्स’ के संवाददाता ने तात्या से उनकी गिरफ़्तारी के पश्चात भेंट की थी। उसने 18 अप्रैल, 1849 के संस्करण में लिखा था कि तात्या न तो ख़ूबसूरत हैं और न ही बदसूरत; किंतु वह बुद्धिमान हैं। उनका स्वभाव शांत और निर्बध है। उनका स्वास्थ्य अच्छा और क़द औसत है। उन्हें मराठी, उर्दू और गुजराती का अच्छा ज्ञान था। वे इन भाषाओं में धारा प्रवाह बोल सकते थे। अंग्रेज़ी तो वह मात्र अपने हस्ताक्षर करने भर के लिए जानते थे, उससे अधिक नहीं। वह रुक-रुक कर, किंतु स्पष्ट रूप से, एक नपी-तुली शैली में बोलते थे। किंतु उनकी अभिव्यक्ति का ढंग अच्छा था और वे श्रोताओं को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। यह सच है कि तात्या अपनी वाक-शक्ति और समझाने की अपनी शक्ति से प्रायः अपने विरोधियों की सेनाओं को भी समझाकर अपने पक्ष में मिला लेते थे।

प्रसिद्धि

1857 ई. तक लोग तात्या टोपे के नाम से अपरिचित थे। लेकिन 1857 की नाटकीय घटनाओं ने उन्हें अचानक अंधकार से प्रकाश में ला खड़ा किया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रारंभ होने से पूर्व वे राज्यच्युत बाजीराव द्वितीय के सबसे बड़े पुत्र बिठूर के राजा नाना साहब के एक प्रकार से साथी-मुसाहिब मात्र थे, किंतु स्वतंत्रता संग्राम में कानपुर के सम्मिलित होने के पश्चात तात्या पेशवा की सेना के सेनाध्यक्ष की स्थिति तक पहुंच गए। उसके पश्चातवर्ती युद्धों की सभी घटनाओं ने उनका नाम सबसे आगे एक पुच्छल तारे की भांति बढ़ाया, जो अपने पीछे प्रकाश की एक लंबी रेखा छोड़ता गया। उनका नाम केवल देश में नहीं वरन देश के बाहर भी प्रसिद्ध हो गया। मित्र ही नहीं, शत्रु भी उनके सैनिक अभियानों को जिज्ञासा और उत्सुकता से देखने और समझने का प्रयास करते थे। समाचार पत्रों में उनके नाम के लिए विस्तृत स्थान उपलब्ध था। उनके विरोधी भी उनकी प्रशंसा करते थे, जैसे-

कर्नल माल्सन ने उनके संबंध में कहा है कि- “भारत में संकट के उस क्षण में जितने भी सैनिक नेता उत्पन्न हुए, वह उनमें सर्वश्रेष्ठ थे।”सर जॉर्ज फॉरेस्ट ने उन्हें ‘सर्वोत्कृष्ट राष्ट्रीय नेता’ कहा है।आधुनिक अंग्रेज़ी इतिहासकार पर्सीक्रास स्टेडिंग ने सैनिक क्रांति के दौरान देशी पक्ष की ओर से उत्पन्न ‘विशाल मस्तिष्क’ कहकर उनका सम्मान किया। उसने उनके विषय में यह भी कहा है कि- “वह विश्व के प्रसिद्ध छापामार नेताओं में से एक थे।”झाँसी की रानी और तात्या टोपे

रानी लक्ष्मीबाई

सन 1857 के दो विख्यात वीरों झाँसी की रानी और तात्या टोपे में से झाँसी की रानी को अत्यधिक ख्याति मिली। उनके नाम के चारों ओर यश का चक्र बन गया था, किंतु तात्या टोपे के साहसपूर्ण कार्य और विजय अभियान रानी लक्ष्मीबाई के साहसिक कार्यों और विजय अभियानों से कम रोमांचक नहीं थे। रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध अभियान जहाँ केवल झाँसी, कालपी और ग्वालियर के क्षेत्रों तक ही सीमित रहे थे, वहीं तात्या टोपे एक विशाल राज्य के समान कानपुर, राजपूताना और मध्य भारत तक फैल गए थे।

कर्नल ह्यूरोज जो मध्य भारत में युद्ध अभियान का सर्वेसर्वा था, उसने यदि रानी लक्ष्मीबाई की प्रशंसा ‘उन सभी में सर्वश्रेष्ठ वीर’ के रूप में की थी तो मेजर मीड को लिखे एक पत्र में उसने तात्या टोपे के विषय में कहा था कि- “वह भारत युद्ध नेता और बहुत ही विप्लवकारी प्रकृति के थे और उनकी संगठन क्षमता भी प्रशंसनीय थी।” तात्या ने अन्य सभी नेताओं की अपेक्षा शक्तिशाली ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया था।

उन्होंने शत्रु के साथ लंबे समय तक संघर्ष जारी रखा। जब स्वतंत्रता संघर्ष के सभी नेता एक-एक करके अंग्रेज़ों की श्रेष्ठ सैनिक शक्ति से पराभूत हो गए तो वे अकेले ही विद्रोह की पताका फहराते रहे। उन्होंने लगातार नौ माह तक उन आधे दर्जन ब्रिटिश कमांडरों को छकाया जो उन्हें पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। तात्या टोपे अंत तक अपराजेय ही बने रहे।

ब्रिटिश शासन से विद्रोह के कारण

1857 ई. का विद्रोह जिन कारणों से हुआ, उनसे सभी परिचित हैं। कुछ कारण निम्नलिखित हैं- सर जौन लारेंस ने कहा था- “यह चरबी लगी कारतूस और मात्र चरबी लगी कारतूसों के कारण हुआ।” किंतु मात्र चरबी लगी कारतूस इतना बड़ा और शक्तिशाली तूफ़ान लाने में समर्थ नहीं हो सकती थी। वास्तव में चरबी लगी कारतूस, जैसा कि सिपाहियों को संदेह था, उन्हें ईसाई धर्म में परिवर्तन करने का एक जघन्य हथियार था। इसके लिए तो रूपक की भाषा में यह कहा जा सकता है कि यह पके हुए फोड़े पर नश्तर था। इससे पहले भी अनेक सैनिक सुधार हो चुके थे, जिसमें यह कहा था कि सिपाही अपनी शान से बढ़ाई गई दाढ़ी एक निर्दिष्ट पैटर्न में ही रखे।

भारतीय सैनिकों को यह आदेश दिया गया था कि वे भारतीय पगड़ी के स्थान पर चमड़े से बने टोप पहनें।
बर्मा युद्ध के दौरान सिपाहियों को समुद्री यात्रा करने पर मजबूर कर दिया गया था। सिपाहियों ने इसका विरोध भी किया था, क्योंकि वह ऐसा समझते थे कि यह उनके धार्मिक विश्वासों पर अनावश्यक हस्तक्षेप था, लेकिन कम्पनी सरकार ने उनके संदेह के निराकरण के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया।चार्टर अधिनियम, 1813 ने सारे भारत का द्वार सभी अंग्रेज़ों के लिए खोल दिया था। जिसके परिणामस्वरूप मिशनरियों के धर्म परिवर्तन कराने पर संबंधी कार्यकलाप तेजी से बढ़ते जा रहे थे। एक समसामयिक व्यक्ति ने यह कहा कि “मिशनरियों पर से रोक हटा ली गई थी, ताला तोड़कर चर्च के दरवाज़े पर फेंक दिया गया था, धर्मग्रंथों को बाहर ले जाकर उन पर प्रवचन करने का मौक़ा दे दिया गया था। जब ईसाई सरकार भारत में ईसाइयत के प्रसार का विरोध न कर सकी।”

युद्ध अभियान

सन 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के विस्फोट होने पर तात्या टोपे भी समरांगण में कूद पड़े। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहब के प्रति अंग्रेज़ों ने जो अन्याय किये थे, उनकी उनके हृदय में एक टीस थी। उन्होंने उत्तरी भारत में शिवराजपुर, कानपुर, कालपी और ग्वालियर आदि अनेक स्थानों में अंग्रेज़ों की सेनाओं से कई बार लोहा लिया। सन 1857 के स्वातंत्र्य योद्धाओं में वही ऐसे तेजस्वी वीर थे, जिन्होंने विद्युत गति के समान अपनी गतिविधियों से शत्रु को आश्चर्य में डाल दिया था। वही एकमात्र ऐसे चमत्कारी स्वतन्त्रता सेनानी थे, जिसने पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के सैनिक अभियानों में फिरंगी अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिये थे। राजस्थान की भूमि में तात्या ने जो शौर्य का परिचय दिया था, वह अविस्मरणीय है। देश का दुर्भाग्य था कि राजस्थान के राजाओं ने उनका साथ नहीं दिया।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज़ सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया, तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु 16 जुलाई, 1857 को उनकी पराजय हो गयी और उन्हें कानपुर छोड़ना पड़ा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लड़ाई में पराजित हो गये, परंतु उनके नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज़ सेनापति को भी प्रशंसा करनी पड़ी।

कुशल सेनापति

तात्या एक कुशल सेनापति थे। पराजय से विचलित न होते हुए वे बिठूर से राव साहेब सिंधिया के इलाके में पहुँचे। वहाँ वे ग्वालियर कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकड़ी को अपनी ओर मिलाने में वे सफल रहे। वहाँ से वे एक बड़ी सेना के साथ कालपी पहुँचे। नवम्बर 1857 में उन्होंने कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल की कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज़ सेना तितर-बितर होकर भागने लगी, परंतु यह जीत थोड़े समय के लिए ही थी। ब्रिटिश सेना के प्रधान सेनापति सर कॉलिन कैम्पबेल ने तात्या को 6 दिसम्बर को पराजित कर दिया। इसलिए तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया।

खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए, जो सेना के लिए जरूरी थे। इसी बीच 22 मार्च को सर ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। ऐसे नाजुक समय में तात्या टोपे करीब बीस हज़ार सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मीबाई की मदद के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद कालपी पहुँचे। इस युद्ध में तात्या टोपे को एक बार फिर ह्यूरोज के विरुद्ध पराजय देखनी पड़ी। बाद में फूल बाग़ के पास ह्यूरोज के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना से युद्ध करते हुए रानी लक्ष्मीबाई 17 जून, 1858 को शहीद हो गयीं।

इसके बाद तात्या टोपे का दस माह का जीवन अद्वितीय शौर्य गाथा से भरा है। लगभग सब स्थानों पर विद्रोह कुचला जा चुका था, लेकिन तात्या ने एक साल की लम्बी अवधि तक मुट्ठी भर सैनिकों के साथ अंग्रेज़ सेना को झकझोरे रखा। इस दौरान उन्होंने दुश्मन के विरुद्ध एक ऐसे जबर्दस्त छापेमार युद्ध का संचालन किया, जिसने उन्हें दुनिया के छापेमार योद्धाओं की पहली पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। इस छापेमार युद्ध के दौरान तात्या टोपे ने दुर्गम पहाड़ों और घाटियों में वर्षा से उफनती नदियों और भयानक जंगलों के पार मध्य प्रदेश और राजस्थान में ऐसी लम्बी दौड़ लगाई, जिसने अंग्रेज़ी खेमे में तहलका मचाये रखा। बार-बार उन्हें चारों ओर से घेरने का प्रयास किया गया और बार-बार तात्या को युद्ध करने पड़े, परंतु यह छापामार योद्धा एक विलक्षण सूझबूझ से अंग्रेज़ों के घेरों और जालों के परे निकल गया। तत्कालीन अंग्रेज़ लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि- “हज़ारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और चालीस-चालीस मील तक एक दिन में घोड़ों को दौड़ागा गया, परंतु तात्या टोपे को पकड़ने में कभी सफलता नहीं मिली।”

अंग्रेज़ों से लगातार संघर्ष

ग्वालियर से निकलने के बाद तात्या ने चम्बल नदी पार की और राजस्थान में टोंक, बूँदी और भीलवाड़ा गये। उनका इरादा पहले जयपुर और उदयपुर पर अधिकार करने का था, लेकिन मेजर जनरल राबर्ट्स वहाँ पहले से ही पहुँच गया। परिणाम यह हुआ कि तात्या को, जब वे जयपुर से 60 मील दूर थे, वापस लौटना पड़ा। फिर उनका इरादा उदयपुर पर अधिकार करने का हुआ, परंतु रॉबर्ट्स ने वहाँ घेराबंदी की। उसने लेफ्टीनेंट कर्नल होम्स को तात्या का पीछा करने के लिए भेजा, जिसने तात्या का रास्ता रोकने की पूरी तैयारी कर रखी थी, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भीलवाड़ा से आगे कंकरोली में तात्या की अंग्रेज़ सेना से जबर्दस्त मुठभेड़ हुई, जिसमें वे परास्त हो गये। कंकरोली की पराजय के बाद तात्या पूर्व की ओर भागे, ताकि चम्बल पार कर सकें। अगस्त का महीना था। चम्बल नदी काफ़ी तेज प्रवाह से बह रही थी, लेकिन तात्या को जोखिम उठाने में आनंद आता था।

अंग्रेज़ उनका पीछा कर रहे थे, इसलिए उन्होंने बाढ़ में ही चम्बल नदी पार कर ली और झालावाड़ की राजधानी झालरापाटन पहुँचे। झालावाड़ का शासक अंग्रेज़-परस्थ था। इसलिए तात्या ने अंग्रेज़ सेना के देखते-देखते उससे लाखों रुपये वसूल किए और 30 तोपों पर अधिकार कर लिया। यहाँ से उनका इरादा इंदौर पहुँचकर वहाँ के स्वाधीनता सेनानियों को अपने पक्ष में करके फिर दक्षिण पहुँचना था। तात्या को भरोसा था कि यदि नर्मदा नदी को पार करके महाराष्ट्र पहुँचना संभव हो जाय तो स्वाधीनता संग्राम को न केवल जारी रखा जा सकेगा, बल्कि अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़ा भी जा सकेगा।

नर्मदा पार करके और उसके दक्षिणी क्षेत्र में प्रवेश करके तात्या टोपे ने अंग्रेज़ों के दिलों में दहशत पैदा कर दी। नागपुर क्षेत्र में तात्या के पहुँचने से बम्बई प्रांत का गर्वनर एलफिन्सटन घबरा गया। मद्रास प्रांत में भी घबराहट फैल गई। तात्या अपनी सेना के साथ पंचमढ़ी की दुर्गम पहाड़ियों को पार करते हुए छिंदवाड़ा के 26 मील उत्तर-पश्चिम में जमई गाँव पहुँच गये। वहाँ के थाने के 17 सिपाही मारे गये। फिर तात्या टोपे बोरदेह होते हुए 7 नवम्बर को मुलताई पहुँच गये। मुलताई में तात्या ने एक दिन विश्राम किया। उन्होंने ताप्ती नदी में स्नान किया और ब्राह्मणों को एक-एक अशर्फी दान की। बाद में अंग्रेज़ों ने ये अशर्फियाँ जब्त कर लीं।

मुलताई के देशमुख और देशपाण्डे परिवारों के प्रमुख और अनेक ग्रामीण उनकी सेना में शामिल हो गये। परंतु तात्या को यहाँ जन समर्थन प्राप्त करने में वह सफलता नहीं मिली, जिसकी उन्होंने अपेक्षा की थी। तात्या के एक सहयोगी ने लिखा है कि- “तात्या उस समय अत्यंत कठिन स्थिति का सामना कर रहे थे। उनके पास न गोला-बारूद था, न रसद, न पैसा। उन्होंने अपने सहयोगियों को आज्ञा दे दी कि वे जहाँ चाहें जा सकते हैं, परंतु निष्ठावान सहयोगी और अनुयायी ऐसे कठिन समय में अपने नेता का साथ छोड़ने को तैयार नहीं थे।” तात्या असीरगढ़ पहुँचना चाहते थे, परंतु वहाँ कड़ा पहरा था। अतः निमाड से बिदा होने के पहले उन्होंने खण्डवा, पिपलोद आदि के पुलिस थानों और सरकारी इमारतों में आग लगा दी। खण्डवा से वे खरगोन होते हुए मध्य भारत वापस चले गये। खरगोन में खजिया नायक अपने 4000 अनुयायियों के साथ तात्या टोपे के साथ जा मिला। इनमें भील सरदार और मालसिन भी शामिल थे।

गिरफ़्तारी

इन्दरगढ़ में तात्या टोपे को नेपियर, शाबर्स, समरसेट, स्मिथ, माइकेल और हार्नर नामक ब्रिगेडियर और उससे भी ऊँचे अंग्रेज़ सैनिक अधिकारियों ने हर एक दिशा से घेर लिया। बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था, लेकिन तात्या में अपार धीरज और सूझ-बूझ थी। अंग्रेज़ों के इस कठिन और असंभव घेरे को तोड़कर वे जयपुर की ओर भागे। देवास और शिकार में उन्हें अंग्रेज़ों से पराजित होना पड़ा। अब उन्हें निराश होकर परोन के जंगल में शरण लेने पड़ी। परोन के जंगल में तात्या टोपे के साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेज़ों से मिल गया और उसकी गद्दारी के कारण तात्या टोपे 8 अप्रैल, 1859 ई. को सोते समय में पकड़ लिए गये।

मृत्यु सम्बन्धित तथ्य

तात्या टोपे की मृत्यु से सम्बन्धित तथ्य निम्नलिखित हैं- इस वीर के सम्बन्ध में कहा जाता है कि अंग्रेज़ों ने तात्या के साथ धोखा करके उन्हें पकड़ा था। बाद में अंग्रेज़ों ने उन्हें फ़ाँसी पर लटका दिया, लेकिन खोज से ये ज्ञात हुआ है कि फ़ाँसी पर लटकाया जाने वाला कोई दूसरा व्यक्ति था, तात्या टोपे नहीं। असली तात्या टोपे तो छद्मावेश में शत्रुओं से बचते हुए स्वतन्त्रता संग्राम के कई वर्ष बाद तक जीवित रहे। ऐसा कहा जाता है कि 1862-1882 ई. की अवधि में स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानी तात्या टोपे ‘नारायण स्वामी’ के रूप में गोकुलपुर, आगरा में स्थित सोमेश्वरनाथ के मन्दिर में कई महिने रहे थे।

भारत में 1857 ई. में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता तात्या टोपे के बारे में भले ही इतिहासकार कहते हों कि उन्हें 18 अप्रैल, 1859 में फ़ाँसी दी गयी थी, लेकिन उनके एक वंशज ने दावा किया है कि वे 1 जनवरी, 1859 को लड़ते हुए शहीद हुए थे। तात्या टोपे से जुड़े नये तथ्यों का खुलासा करने वाली किताब ‘टोपेज़ ऑपरेशन रेड लोटस’ के लेखक पराग टोपे के अनुसार- “शिवपुरी में 18 अप्रैल, 1859 को तात्या को फ़ाँसी नहीं दी गयी थी, बल्कि गुना ज़िले में छीपा बड़ौद के पास अंग्रेज़ों से लोहा लेते हुए 1 जनवरी, 1859 को तात्या टोपे शहीद हो गए थे।” पराग टोपे के अनुसार- “इसके बारे में अंग्रेज़ मेजर पैज़ेट की पत्नी लियोपोल्ड पैजेट की किताब ‘ऐंड कंटोनमेंट : ए जनरल ऑफ़ लाइफ़ इन इंडिया इन 1857-1859’ के परिशिष्ट में तात्या टोपे के कपड़े और सफ़ेद घोड़े आदि का जिक्र किया गया है और कहा कि हमें रिपोर्ट मिली की तात्या टोपे मारे गए।” उन्होंने दावा किया कि टोपे के शहीद होने के बाद देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी अप्रैल तक तात्या टोपे बनकर लोहा लेते रहे। पराग टोपे ने बताया कि तात्या टोपे उनके पूर्वज थे। उनके परदादा के सगे भाई।

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