भलाई का ज़माना नहीं रहा!

एक बार मार्किट साइड से जा रहे थे तो क्या देखते हैं कि एक सुंदर सी लड़की बेचारी लंगड़ा लँगड़ा के चल रही थी। हमारा दिल पसीज गया। ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते पूछ लिए, “मैडम कोई मदद कर दूँ?” 

वो नहीं मानी और बोली, “मैं ठीक हूँ।” 

हमने सोचा बड़ी खुद्दार है ये तो। फिर हम बोले, “अरे आपको तकलीफ हो रही होगी। आप ऐसा करो मेरी गाड़ी में बैठ जाओ मैं ड्राप कर दूंगा।” 

वो फिर नहीं मानी। 

हम बोले, “चलो बाहों का सहारा दे दूँ, ठीक से चल पाओगी आप।” 

वो बोली, “नो थैंक्स।” 

हमने सोचा पुण्य तो कमा के ही रहेंगे आज। आखिरी बार बोला, “मैडम चलो न मेरी न आपकी, आपको बाहों में उठा लूँ क्या?” 

वो बोली, “आगे दस कदम की दूरी पे मोची की दुकान है। मेरी सैंडल टूट गई है साले। और तू घुसी जा रहा है। बाहों में उठा लूँ, गोद में बिठा लूँ। चल भाग यहाँ से।”

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