आज तक आप भी नहीं जानते होंगे तंत्र विद्या का ये स्वरूप Tantra Vidya
जैसा की हमने आपको अपने पिछले लेख में बताया था की इंडिया हल्लाबोल के पाठकों की डिमांड पर हमने दुनिया की तन्त्र की राजधानी माने जाने वाली पीठ “कामख्या मंदिर” (गुवाहटी, असम) के भैरव पीठ के उत्तराधिकारी श्री शरभेश्वरा नंद “भैरव” जी महाराज से बात कर उनसे तन्त्र के सही स्वरूप को जानने के लिए निवेदन किया था। जिस पर इंडिया हल्ला बोल के पाठकों के लिए उन्होंने पहली बार मीडिया में अपने लेख देने के लिए अपनी सहमति दी है। उसी क्रम में हम आज उनका ये लेख आपके लिए लेकर आये हैं “तंत्र विद्या का वास्तविक स्वरूप”
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श्री शरभेश्वरा नंद “भैरव” जी महाराज के अनुसार
“तंत्र” आपके मन, आत्मा और चेतना पर सीधे असर करता है। यह आपके जीवन को तुरंत बदलने की क्षमता रखता है। तंत्र आपके जन्मों के पाप पुण्य को खोलने, उसे संशोधित करने, वर्तमान व भविष्य को प्रभावशाली बनाने के लिए सबसे उत्तम है। तंत्र अकेला ऐसा भक्ती मार्ग है जो देवताओं से सीधे संवाद स्थापित कर सकता है। तंत्र विद्या को इसीलिये रहस्यमयी विद्या माना जाता है।
सामान्य जन के मन में “तंत्र” को लेकर हमेशा भय बना रहता है और लोग इस बारे में बात करने , जानने -समझने से बचते है। तंत्र के बारे में सोचते ही झाड़-फूँक, श्मशान, भूत-प्रेत और कुछ वीभ्स्त क्रियाएँ करते हुये डरावने तान्त्रिकों की कल्पना तैरने लगती है। समान्यतः यही धारणा है तंत्र के विषय में है।
आज के युग में तांत्रिक या तंत्र विद्या का ज्ञाता उसे माना जाता है जो तंत्र के षट्कर्म करने का दावा करता हो।
जैसा की आजकल विज्ञापनों में देखने को मिलता है घर बैठे काम, मनचाहा प्रेम और यहाँ तक की घर बैठे-बैठे करोड़पति बनना। ये बहुत छोटे स्तर की विद्या है जो बहुत कम समय के लिए काम करती है। पर इस से तंत्र विद्या का वास्तविक स्वरूप बदनाम होता है।
जबकि ठीक इसके विपरीत “तंत्र” साधना का विशाल और दिव्य मार्ग है, जिस के पुरोधा भगवान शिव है। कई जन्मों के पुण्यों और साधना उपरांत ही “तंत्र” के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान सम्भव हो पाता है और तब जा कर कोई तंत्र साधक बन पाता है।
यहाँ यह समझना बहुत आवश्यक है की तांत्रिक और तंत्र साधक में क्या अंतर है। अक्सर लोग किसी प्रेत को सिद्ध कर और झाड़-फूँक की विद्या को सीख कर अपने आप को तांत्रिक घोषित कर देते है और यह प्राप्ति कुछ ही दिनों में हो जाती है। अब ऐसे तांत्रिक कुछ पैसे लें कर लोगों के कार्य करने का दावा करना शुरू कर देते है। किसी की इच्छा के विरुद्ध उसके मन और चेतना को काबू में कर के मनचाहा प्रेम प्राप्ति कराने का दावा किया जाता है। किसी की इच्छा के विरुद्ध प्रेम प्राप्ति क्या वास्तव में प्रेम प्राप्ति है? जब कुछ समय उपरांत यह प्रयोग खंडित होता है तो जो दुष्कर परिणाम निकलते हैं उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। तंत्र बल प्रदान करता है, तुरंत फल प्राप्ति करवाता है परन्तु तंत्र के नियमों के विरुद्ध किये गये कार्यों का परिणाम दुष्कर ही होगा। दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसे तान्त्रिकों की कोई कमी नहीं है। कुछ तंत्र के नाम पर लोगों का मूर्ख बना रहे हैं तो कुछ तंत्र का दुरुपयोग कर रहें हैं।
अब बात करते हैं तंत्र साधक की। तंत्र साधक वह है जो अपनी साधना को तँत्रोक्त विधि से करता है ,जिसके पास तंत्र दीक्षा प्राप्त है और यही उसका तप,पूजा पद्दति और भक्ति मार्ग है। समान्यतः इस में भैरव साधना, दस महाविद्या और शिव-शक्ति साधना आती है और अन्य गुप्त साधनाये भी है। परन्तु उनका उल्लेख अभी करना उचित नहीं हैं। इस मार्ग पर कुछ भी ऐसे ही प्राप्त नहीं होता है बहुत परीक्षाओँ से गुजरना पड़ता है, बहुत त्याग और तप करना होता है और तंत्र के कठिन नियमों में संकल्पबंद्ध हो उनका अनुसरण करना होता है। कई वर्षों के इस तप और साधना अभ्यास के उपरांत इष्ट कृपा या सिद्धि की प्राप्ति होती है। अब इस कृपा या सिद्धि को बनाये रखने के लिये भी नियमित रुप से साधना और नियम पालन करना आवश्यक है। इसी क्रम में तंत्र साधक अपनी साधना को बढ़ाते हुये पूर्णतः को प्राप्त करता है। यदि अपनी क्षमता का दुरुपयोग किया तो सिद्धि हानि होना निश्चित है और उसकी पुन: प्राप्ति और भी कठिन है। सच्चा तंत्र साधक चाह कर भी किसी का अहित नहीं कर सकता है उसे यह ज्ञान रहता है की यह तो जन कल्याण और आत्म उत्थान का मार्ग है। जन्मों जन्म के पापों से मुक्ति का मार्ग है और परम तत्व प्राप्त कर मुक्ति का मार्ग है।
तंत्र विद्या के बल पर असुरों ने देवताओं पर विजय प्राप्त की। मेघ नाथ को जब पराजय का भय हुआ तो उसने तंत्र पूजन शुरू किया। वह वट वृक्ष के नीचे नैऋति की पूजा करता था और भूतों को पंच बलि प्रदान करता था। इसी पूजन के बल पर वह देवताओं पर विजय प्राप्त करता था और मायावी शक्तियों का स्वामी बना परन्तु दुरुपयोग उसके नाश का कारण भी बना।
तँत्रोक्त पूजन असुरों द्वारा अधिक प्रयोग किया जाता था और ऋषिगण भी आवश्यकता वश इसका प्रयोग करते थे। उल्लेख मिलता है की विश्वामित्र ने गुरु वसिष्ठ के सौ पुत्रों को अभिचार कर्म के द्वारा मार दिया था। शिव जो की आदि गुरू है ने तंत्र विद्या के बल पर ही वीरभद्र को प्रकट किया और दक्ष के यज्ञ और अहंकार का नाश किया।
तंत्र विद्या असीमित बल प्रदान करती है और आत्म रक्षा, जन कल्याण और दुष्टों के नाश के लिये सर्वोत्तम है। ज़रूरत है किसी गुरू के मार्गदर्शन में इसे किया जाये।
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