”महावीर स्वामी तो जैनों के आखिर के यानी 24 वें तीर्थं कर माने जाते हैं । उनसे हजारों साल पहले जैनविचार का जन्म हुआ था । ऋृगवेद में भगवान की प्रार्थना में एक जगह कहा है -‘ अर्हन इंद बयसे विश्त्रं अथवम् ”है अर्हन ! तुम जिस तुच्छ दिुनियाँ पर दया करते हो । इसमें ‘अर्हन’ और ‘दया’ दानों जैनों के प्यारे शब्द हैं । मेरी तो मान्यता है कि जितना हिन्दुधर्म प्राचीन होना ही बड़ी बात नहीं है, अगर कोई धर्म अर्वाचीन भी है, लेकिन उसमें सही बात है तोउसकी कीमत है और यदि कोई धर्म अति प्राचीन है, लेकिन सही बात उसमें नहीं है, तो उसकी कोई किमत नहीं है । दर असल कीमत सही विचार की है, और सही विचार जैनों ने बहुत दिया है ।
जैनों का मुख्य विचार मशहुर है – प्राणियों पर दया भाव रखना उनका एक दूसरा भी विचार है – जो पहले से जितना प्रसिध्द नहीं है लेकिन उतना ही महत्व का है । हर बात में मध्यस्थ वृत्ति रखना, यानी किसी बात का आग्रह नरखना । आग्रह से हम एकांगी बन जाते है । जैन धर्म सर्मांगी दृष्टि रखने को कहता है । उसे वे सम्यकत्व कहते हैं ।
भूदान यज्ञ से प्रणेता
– आचार्य विनाबा भावे
मैं आप लोगों से विश्वास पूर्वक यह बात कहँगा कि महावीर स्वामी का नाम इस समय यदि किसी सिध्दांत के लिए पूजा जाता हो, तो वह अहिंसा है । प्रत्येक धर्म की उच्चता इसी बात में है कि उस धर्म में अहिंसा तत्व की प्रधानता हो । अहिंसा तत्व को यदि किसी ने भी अधिक से अधिक विकसित किया है, तो वे महावीर स्वामी थे । मैं आप लोगों से विनती करता हूं कि आप महावीर स्वामी के उपदेशों को पहिचाने, उन पर विचार करें और उनका अनुसरण करें।
स्व. महात्मा गांधी
महावीर स्वामी ने भारत में ऐसा सन्देश फैलाया किधर्म केवल सामाजिक रूढ़ियों के पालन करने में नही किन्तु सत्य धर्म का आश्रय लेने से मिलता है । धर्म में मनुष्य के प्रति कोई स्थायी भेद-भाव नहीं रह सकता । कहते हुए आश्चर्य होता है कि महावीर की इस शिक्षा ने समाज के ह्रदय में जड़ जमा कर बैठी हुई इस भेद भावना को बहुत शीघ्र नष्ट कर दिया और सारे देश को अपने वश में कर लिया ।
स्व. विश्व कवि रविन्द्रनाथ टैगोर
महावीर स्वामी ने जन्म मरण की परम्परा पर विजय प्राप्त की थी, उनकी शिक्षा विश्वमानव के कल्याण के लिए थी। अगर आप की शिक्षा संकीर्ण रहती तो जैनधर्म अरब आदि देशों तक न पहँच पाता ।
स्व. आचार्य नरेन्द्रदेव
जैनों का अर्थ है संयम और अहिंसा । जहाँ अहिंसा है वहाँ भाव नहीं रह सकता है । दुनियाँ को पाठ पढ़ाने की जवाबदारी आज नहीं तो कल अहिंसात्मक संस्कृति के ठेकेदार बनने वाले जैनियों को ही लेनी पड़ेगी ।
सव. सरदार वल्लभ भाई पटेल
भगवान महावीर द्वारा प्रचारित सत्य और अहिंसा के पालने से ही संसार संघर्ष और हिंसा से अपनी सुरक्षा कर सकता है ।
भगवान महावीर का सन्देष किसी खास कौम या फिरके के लिए नहीं है, बल्कि समस्त संसार के लिए है । अगर जनता महावीर स्वामी के उपदेष के अनुसार चले तो वह अपने जीवन को आदर्ष बना ले । संसार में सुख और षांति उसी सूरत में प्राप्त हो सकती है जबकि हम उनके बतलाये हुए मार्ग पर चलें ।
राजगोपाला चार्य
विश्वमें शांतिस्थापना के लिए अपने प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप भारत की इस समयजो स्थिति है, वह अद्वितीय है । भारत के नेताओं ने स्वतंत्रता की लड़ाई में और स्वतंत्रता प्राप्ति केबाद भगवान महावीर के सत्य औरअहिंसा प्रेम के उपदेश का अनुसरन किया, जो किसी जाति एवं समुदाय विशेष के लिए नहीं बल्कि समस्त विश्व के लिए था । महावीर ने सदियों पहले अहिंसा का पाठ पढ़ाया । महात्मा गाँधी ने भी ऐसे ही सन्देश दिये । अब आवश्यकता उन सिध्दांतों पर अमल करने की है ।
श्री महावीर स्वामी ने सहस्त्रों वर्ष पूर्व का जो उपदेशदिया था वह आजकल की घोर स्थितियों के सर्वथा अनुकूल है । उस समय भी विश्व और मानव समाज आज के समान ही हिंसा से उत्पीड़ित था । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज तक भारत ने जो तरक्की की है और संसारमें उसका मान बढ़ा है, वह केवल इसलिए कि भारत आज की परिस्थितियों के अनुकूल शान्ति औरअहिंसा के सिध्दांत में कोई त्रुटि है । हम भी उसे अपने जीवन में पूरी तरह नहीं उतार सके हैं । हमासरे अपने देश में भी हम अहिंसा को मनुष्य तक ही सीमित रखना चाहते हैं, मनुष्य की खातिर अनेक जानवरों की हिंसा करनी पड़े तो वह वैध समझी जाती है ।
अहिंसा की वाणी अभी ह्रदय के अंतस्थल तक नहीं पहॅुंच सकी है । लेकिन हम उसे पूरी तरह समझे या न समझे हों यदि हम बाहय शक्ति पर भरोसा छोड़ कर मेल और सद्भावना पर अधिक भारोसा करने लग जायँ तो अहिंसा का दायरा केवल मनुष्य मात्र तक तक सीमित न रह कर जन्तुओं तथा प्राणी मात्र तक बढ़ सकता है । जिन्होंने अपने जीवन में अहिंसा को उतारने से कुछ हासिल किया है, उसे वे दूसरों में भी बांटे । अहिंसा से बड़ी कोई दूसरी चीज नहीं हो सकती । इसलिये उसे ज्यादा बांटना और फैलाना चाहिए ।
अभी यह तथ्य संसार के बहुत से लोगों के दिमाग में प्रवेश नहीं कर सका है । यह सिखाने का प्रयत्न भगवान महावीर स्वामी ने किया था । एक समय ऐसा आयगा जब लोग सैनिक शक्ति पर कम और विश्व शांति स्थापित करने के लिये मानव के बीच प्रेम, मैत्री तथा सद्भावना पर अधिक निर्भर रहेंगे । अहिंसा मानव मात्र के लिये अत्यन्त आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है, यदि मानव समाज को कायम रहना है तो अहिंसाव्रतियों को चाहिये कि वे वर्तमान युग की चुनौती स्वीकार करते हुए अहिंसा को अपने जीवन में उतार कर इस ढंग से दूसरों के सामने रक्खें जिससे सारा संसार उसे समझ सके और ग्रहण कर सकें ।
जैन धर्मवलम्बियों को चाहिए कि उनके जितने ग्रन्थों का आज तक प्रकाशन नहीं हो पाया है, उन्हें शीघ्रता पूर्वक और हो सके तोसरल अनुवाद या टीका के साथ छपवाना चाहिए । ताकिउन साधारण उनसेलाभ उठा सके । प्रकाशन का कार्य चल रहा है पर तेजी से नहीं होरहा है । इसके अलावा इस बात का भी ध्यान रखा जाय कि प्रचार के काम में वैमनस्य न आय और न किसी दूसरे पर आक्षेप किए जायँ । सब को प्रेम से जीतने की कोशिश की जाय तभी सफलता मिलेगी ।
मैं अपने को धन्य मानता हँ कि मुझे महावीर स्वामी के द्रदेश में रहने कासौभाग्य मिला है ।अहिंसा जैनों कीसम्पत्ति है । जगत में अन्य किसी भी धर्म मेंअहिंसा सिध्दांत का प्रतिपादन इतनी सफलता से नहीं मिला ।
राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद
जैन फलॉसफरों जैसा पदार्थ के सूक्ष्म तत्व का विचार किया है उसको देखकर आजकल फलॉसफर बड़े आश्चर्य में पड़ जाते है । वे कहते है कि महावीर स्वामी आजकल के साइन्स के सबसे पहले जन्म दाता है ।
रिसर्च स्कोलर पं. माधवाचार्य
जैन का अर्थ है मनुष्य से प्रेम करना । जैनसे युक्त व्यक्ति अपना भरण-पोषण करता हुआ दूसरों का भी भरण-पोषण करता है । अपना विकास करता हुआ दूसरों को भी विकसित होने में मदद देता है और अपने प्रति जैसे व्यवहार की अपेक्षा रखता है, दूसरों के प्रति भी ठीक उसी प्रकार का व्यवहार करता है ।
महात्मा कन्फयूशस का एक सिध्दान्त
वैशाली जन का प्रति पालक गण का आदि विधाता ।
जिसे ढूंढता आज देश उस प्रजातंत्र की माता ॥
रुको एक क्षण पथिक, जहाँ की मिट्टी को शीश नवाओ ।
राजसिध्दियों की सम्पत्ति पर फूल चढ़ाते जाओ ॥’
दिनकरयूनानियों को उसने हैरान करदिया था ।
सारे जहाँ को उसने इल्म हुन्नर दिया था ॥
इकबाल
नांह रामो न मे वांछा, भावेयु न च मे मन: ।
शान्ति मास्थातु मिच्छामि त्वात्मन्येव जिनो यथा ॥
भावार्थ :-न मैं राम हॅू, न मेरी वांछा पदार्थों में है । मैं तो ‘जिन’ के समान अपने आत्मा मतें ही शान्ति स्थापित करना चाहता हँ ।
योग विशिष्ट, अ. 15 श्लोक
8 में श्री राम चन्द्र जी कहते हैं ।
एकाकी निस्पृह: शांत पाणिपात्रो दिगम्बर: ।
कदा शंभो ! भविष्यामि, कर्म निर्मूल नक्षमम् ॥
भतृहरि
हे अर्हन् । (जैनियों के पाँच में से प्रथम परमेष्ठी) आप वस्तु स्वरूप धर्म रूपी बालकों को, उपदेशक रूपी धनुष को तथा आत्म चतुष्टय रूपी आभूषणों को धारण किये हो । हे अर्हन् ! आप विश्व रूप प्रकाशक केवल ज्ञान को प्राप्त हो । हे अर्हन् ! आप इस संसार के जब जीवों की रक्षा करते हो । हे कामादि को रूलाने वाले ! आप के समान कोई बलवान नहीं है ।
अजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र 14 ।
अब तक जैन धर्म को जितना जान सका हूँ मेरा दृढ़ विश्वास हो गया है कि विराधी सज्जन यदि जैन साहित्य का मनन कर लेंगे तो विरोध करना छोंड़ देंगे
स्व. डा. गंगानाथ झा, एम.ए.,डि.लिट्
जैन धर्म विज्ञान के आधर पर है, विज्ञान का उत्तरोत्तर विकास विज्ञान को जैनदर्शक के समीप लाता जा रहा है ।
डा. एल.टैसी टौरी, इटली ।
जैन धर्म में मनुष्य की उन्नति के लिए सदाचार को अधिक महत्व प्रदान किया गया है । जैन धर्म अधकि मौलिक, स्वतंत्र तथा सुव्यवस्थित है । ब्राह्मण धर्म की अपेक्षा यह अधिक सरल, सम्पन्न एवं विविधतापूर्ण है और यह बौध्द धर्म के समान शून्य कहीं नहीं है ।
डा. ए. गिरनो
जैन संस्कृति मनुष्य संस्कृति हे, जैन दर्शन भी मनुष्य दर्शन ही है । ‘जिन’ देवता नहीं थे किन्तु मनुष्य थे ।
पो. हरि सत्य भट्टाचार्य
मेरे जीवन का एक मात्र उद्देश्य एक सफल जैन प्रचारक बनने का है । मुझे विश्वास है कि जैन धर्म के प्रचार से लोक का सच्चा कल्याण होगा । लन्दन में जैन केन्द्र खोलिये ।
श्री मैथ्यू मैक्के, ब्राईटन
इस प्राणियों के सिध्दान्त से मैं प्रभावित हुआ हूँ । अंडे खाना भी छोड रहा हूँ ।
पी.एल.जी.डी. गेरिज, जीलांग
नये धार्मिक आन्दोलन चलाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जैन धर्म में दुखी दुनिया के हित के लिये सबकुछ मौजूद है । इसका ऐतिहासिक आधार भी सार है । जैन धर्म ने ही पहले पहल अहिंसा का प्रचार किया । दूसरे धर्मों ने उसे वहाँ से ही लिया ।
श्री प्रा. लुई रेनाउ, पी.एच.डी. पेरिस
जैन धर्म सद्दश्य महान् धर्म को पाकर मैं धन्य हूँ । मैंप्रतिदिन पर्वत शिखर पर जाकर ध्यान और स्वाध्याय करता हूँ । आत्मानुशासन मेरा जीवन साथी बन गया है ।
श्री अल्फ्रेड हडसन, हेडनेस फोर्ड
एक फ़िलॉसफर के नाते मैं जैन धर्म के अध्यात्मवाद, त्याग और अहिंसा आदि सिध्दांतों का बड़ा ही आदर करता हूँ।
प्रो. रेमान्ड पाइपर, न्यूयार्क ।
मैं आपने देशवासियों को दिखाउंगा कि कैसे उत्तम नियम और उँचे विचार जैनधर्म और जैन आचार्यों में हैं, जैन साहित्य बौध्द साहित्य से काफी चढ़ बढ़ कर है । ज्यों-ज्यों मैं जैन धर्म तथा उनकेसाहित्य कोसमझता हैूं त्यों त्यों मैं अधिकाधिक पसन्द करता हँ ।
डा. जान्स हर्टल र्जमनी
जब से मैने शंकराचार्य द्वारा जैन सिध्दान्त का खंडन पढ़ा है तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिध्दान्त में बहुत कुछ है । जिसे वेदान्त के आचार्यों ने नहीं समझा । और जो कुछ में अब तक जैनधर्म को जान सका हूं उससे मेरा यह दृढ़ विश्वास हुआ कि यदि वे (शंकराचार्य) जैनधर्म को उसके असली ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैनधर्म के विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती ।
स्व. डा. महामहोपाध्याय गंगानाथ झा,
भूत पूर्व वाईस चांसलर प्रयाग विश्वविद्यालय
विद्वान शंकराचार्य ने इस सिध्दान्त के प्रति अन्याय किया है । यह बात अन्य योग्यता वाले पुरुषों में क्षमा हो सकती थी, किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान को सर्वथा अक्षम्य ही कहूंगा यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि सेदेखता हॅूं । ऐसा जानपड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के जिसकेलिये अनादर सेबिवसन समय अर्थात् नग्न लोगों का सिध्दान्त ऐसा नग्न वे रखते हैं । दर्शन शास्त्र के मूल ग्रन्थों के अध्ययन की परवाह न की ।
पो. फणिभूषण अधिकारी, अध्यक्ष
दर्शन शास्त्र, काशी विश्वविद्यालय
महावीर के सिध्दान्त में बताये गये स्याद्वाद कोकितने ही लोग संशयवाद कहते हैं, इसे मैं नहीं मानता । स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, किन्तु यह एक दृष्टि बिन्दु हमको उपलब्ध करा देती है । विश्व का किस रीति से अवलोकन करना चाहिये यह हमें सिखाता है । यह निश्चय है कि विविध दृष्टि बिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये बिना कोई भी वस्तु सम्पूर्ण स्वरूप में आ नहीं सकती । स्याद्वाद (जैनधर्म) पर आक्षेप करना यह अनुचित है ।
प्रो. आनन्द शंकर बाबू भाई ध्रुव ।
प्राचिन ढरें के हिन्दू धर्मावलम्बी बडे-बडे शास्त्री अबतक भी नहीं जानते कि जैनियों का स्याद्वाद किस चिड़िया का नाम है । धन्यवाद है जर्मनी, फ्रांस और इंगलैंड के कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञों को जिनकी कृपा से इस धर्म के अनुयायियों के कीर्ति कलाप की खोज हुई और भारतवर्ष के इतर जनों का ध्यान आकृष्ट हुआ । यदि येविदेशी विद्वान जैनों के धर्मग्रन्थों की आलोचना न करते, उनके प्राचीन लेखकों की महत्ता प्रकट न करते तोहम लोगशायद आज भी पूर्ववत् अंधकार में ही डूबे रहते ।
स्व. पंडित महावीर प्रसाद जी द्विवेदी
जैनियों के इस विशाल संस्कृत साहित्य के अभाव में संस्कृत कविता की क्या दशा होगी ? जैन साहित्य का जैसे-जैसे मुझे ज्ञान होता जाता है, वैसे-वैसे मेरे चित्र में इसके प्रति प्रशंसा का भाव पढ़ता जाता है ।
डा. हर्टल
जैन धार्मिक ग्रन्थों के निमार्ण कर्ता विद्वान बडे व्यवस्थित विचारक रहे हैं । वे यह बात जानते हैं, कि इस विश्व में कितने प्रकार के विभिन्न पदार्थ हैं । इनकी इन्होंने गणना करके उसके नक्शे बनाये हैं । इसमें वे प्रत्येक बात को यथा स्थान बता सकते है ।
जैनियों ने व्याकरण में इतनी प्रवीणता प्राप्त की है, किइस विषय में उनके शत्रु भी उनका सम्मान करते हैं । उनके कुछ शास्त्र तो यूरोपीय विज्ञान के लिये अब भी महत्तवपूर्ण हैं । जैन साधुओं द्वारा निर्मितनींव पर तामिल, तेलगू तथा कन्नड़ साहित्यिक भाषाओं की अवस्थिति है
प्रो. बूलर
संसार सागर में डूबते हुये मानवों ने अपने उद्वार के लिये पुकारा । इसका उत्त श्री महावीर ने जीव के उद्वार का माग् बतलाकर दिया । दुनियों में एक्य और शांति चाहने वालों का ध्यान श्री महावीर की उदार शिक्षा की ओर आकृष्ट हुये बिना नहीं रह सकता ।
स्व. डा. वाल्टर शुक्रिंग जर्मनी
”महावीर स्वामी ने अपने ज्ञान औरअहिंसा के सिध्दान्त सेसंसार की भोतिकवादी आस्था और नीति को नष्ट कर िदिया कि हम उन्हें प्रथम कोटि का महा मानव कह सकते हैं । उनके प्रतिजर्मन विचारक हरडर की निम्न पंक्तियाँ चरितार्थ कर सकती हैं”
यह बीर विजेता युध्दों के क्षेत्रों का, वह वीर विजेता विश्व वश में करने का । पर वीरों का वीर वह कि जो नेता निज आत्मा को ।
श्रीमती जोसेफ मेरी वान (जर्मनी)
मूलत: वर्ध्दमान या महावीर स्वामी जैन सिध्दान्त के उपदेष्टा अथवा इससे भी बढ़कर यह व्यक्ति समझे जाते थे जिसने अति प्राचीन योग मके पहलुओं का स्वच्छ एवं संक्षिप्त स्पष्टीकरण किया । ”
डा. जोसेफ टुस्सी, इटली
महावीर स्वामी ने शब्दों में ही नहीं अपितु, रचनात्मक जीवन में एक महान आन्दोलन किया । यह आन्दोलन जो नवीन एवं सम्पूर्ण जीवन मेंसुख पाने के लिये नव आाशा का स्त्रोत था, जिसे कि हम जहाँ धर्म कह रहें हैं ।
स्व. श्रीमती आइस डैविड्स, डी.लिट. एम.ए.
भगवान महावीर अलौकिक महापुरूष थे । वे तपस्वियों में आदर्श विचारकों में महान, आत्मविकास में अग्रसर दर्शनकार और उससमय की प्रचलित सभी विद्याओं में पारंगत थे । उन्होंने अपनी तपस्या के बल सेउन विद्याओं को रचनात्मक रूप देकर जनसमूह के समक्ष उपस्थित किया था ।
स्व. डा. अर्नेस्ट लाय मैन, जर्मनी ।