How learn about 84 Miraculous Mahasiddhas । कैसे जानें ८४ चमत्कारी सिद्धों के बारे में

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How learn about 84 Miraculous Mahasiddhas: हमारा देश भारत एक धर्म प्रधान देश है और यहाँ पर सब धर्मों को मानने वाले लोग रहते है। यहाँ पर अनेक साधु और संतों ने जन्म लिया है। और यहाँ पर अनेक ही सिद्ध महात्मा हुए है। सिद्धों और नाथों की आदि काल से ले कर अब तक यानि महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज तक की यात्रा को ही कौलान्तक मार्ग कहते है. सिद्ध परम्परा के योगी महायोगी सत्येन्द्र नाथ महापुरुष हैं. नाथ और सिद्ध पंथ के अद्वितीय परम पुरुष. आइये जानते हैं कैसी परम्परा के पीठ प्रमुख है महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज. सृष्टि के आरम्भ में ही भगवन शिव नाथ स्वरुप में प्रकट हुए. नाथ यानि जो कुछ भी है स्वयं का है और शिव स्वयं स्वयंभू हैं, यदि शरीर स्त्री का है तो पुरुष उसकी पूर्णता है और यदि शरीर पुरुष है तो स्त्री उसकी पूर्णता है.

शिव है तो शक्ति के कारण और शक्ति शिव के कारण है यही अभेद मत सिद्ध मत कहलाता है. इसलिए अर्धनारीश्वर शिवलिंग रूप को पूजने वाला या निराकार स्वरुप को माननेवाला सिद्ध कहलाता है. नाथ और सिद्ध एक ही है किन्तु एक भेद है जो दोनों को अलग करता है. नाथ योग मार्गी है अपने पर काबू कर अपना स्वामी हो जाना नाथ हो जाना है. और सिद्ध अपनी शक्तियों को विविध माध्यमों जैसे तंत्र, मंत्र, योग, औषधि आदि से जगा कर सृष्टि सहित व सर्व हित में लगा देना सिद्ध मार्ग का लक्षण है. किन्तु नाथ हुए बिना सिद्ध नहीं हो सकता और नाथ बिना सिद्ध हुए लगभग मुर्दा है.

ये संप्रदाय शिव से शुरू हो कर आज तक के पड़ाव तक पहुंचा है. पर आज सिद्ध और नाथ एक मत नहीं रहे अलग-अलग संप्रदाय दो हो गए हैं. सिद्धों में भी कई उप संप्रदाय बन गए हैं और नाथों में भी. नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने वर्तमान नाथ स्वरुप में ढला है. जबकि पहले नाथ बाबा गृहस्थ में रेट हुए या घुमक्कड़ बाबा होते हुए भी स्त्रीसंग या विवाह कर लेते थे. इसी कारण सिद्धों का एक मार्ग बना बज्रयान,जो मांस मदिरा जहर जैसे पदर्थों का भी आहार ले कर सुरक्षित रह लेता था. स्त्री संग या विवाह आदि को साधारण कार्य मानता था और मंत्र तंत्र की महाविद्याओं में निपुण हो गया था.

किन्तु धीरे धीरे इस मार्ग में विकृतियाँ आने लगी ये केवल भोग का ही मार्ग रह गया.तब गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। एक ऐसी व्यवस्था दी जो आजतक निरंतर चल ही रही है. ब्रजयान को त्तिब्बतियों नें अपने बौद्ध धर्म में जोड़ कर प्रमुख स्थान दिया. यहाँ तक की उनकी एक प्रमुख शाखा ही ब्रजयानी कहलाती है. गुरु मच्छेंद्र नाथ और गोरखनाथ को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है. सिद्ध नाथ हिमालयों वनों एकांत स्थानों में निवास करते हैं. ये सभी परिव्रराजक होते है यानि घुमक्कड़।

नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। सिद्धों के पास कुछ नहीं होता शिव की तरह घुटनों तक एक उनी कपड़ा होता है व सर्दियों में ऊपर से एक टुकड़ा लपेट लेते है. जबकि नाथों के पास हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी होते हैं. मूलत: पहले दोनों एक ही थे इसलिए नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध भी कहा जाता है. ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे ‘सिले’ कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को ‘सींगी सेली’ कहते हैं।

 नाथ पंथी साधक शिव की भक्ति में लीन रहते हैं. नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं. एक दूसरे को  ‘आदेश’ कह कर नमस्कार या अभिवादन करते हैं. अलख और आदेश शब्द का अर्थ ॐ या सृष्टी पुरुष यानि भगवन होता है. जो नागा यानि वस्त्र रहित साधू है वे भभूतीधारी भी नाथ सम्प्रदाय से ही है. अब अलग मत में सम्मिलित हैं.सिद्धों और नाथ योगियों में जो महँ तेजस्वी उत्त्पन्न हुए उनसे ही आगे क्रमशः बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय चले हैं ये माना जाता है. नाथ साधु-संत हठयोग, तप और सिद्धियों पर विशेष बल देते हैं. सिद्धों में ८४ सिद्ध महँ तपस्वी और चमत्कारी हुए और नाथों में नवनाथ प्रमुख हुए जिनकी कहानिया जन-जन में 

फैली हुयी हैं. नब नाथों के नाम-आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ (इनके नामों में भेद है यानि कई अलग-अलग नामों से एक ही आचार्य को संबोधित किया जाता है जैसे नौ नाथ गुरु : 1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ. इसलिए नामों को लेकर चिंतित न हों).

इनके बाद इनके बारह शिष्य हुए – नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ या 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ इतिहासकारों के अनुसार आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान से वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ. ये सभी भी नाथ ही थे. सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे.

सिध्हों के उदहारण-ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। केवल भगवान दत्तात्रेय एइसे जोगी हैं जो सिद्ध नाथ होते हुए यानि शैव-शक्त होते हुए भी वैष्णव हैं. सिद्ध सम्प्रदाय भारत का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है। पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है।

सिद्ध और नाथ संप्रदाय वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत होते है. जिन्होने अतिकठिन महाशक्तियों को तपस्या द्वारा प्राप्त कर आत्सात किया और कल्याल हेतु संसार को उपदेश दिया. हठ योग की प्रक्रियाओं द्वारा भयानक रोगों से बचने के लिए जन समाज को योग का ज्ञान दिया. नाथों और सिद्धों के चमत्कारों से 

प्रभावित होकर बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए. उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द अनुभव किया और जन-कल्याण में जुट गए. श्री गोरक्षनाथ ने सिद्ध परम्परा के महायोगी श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और लेकिन तंत्र मार्ग और वामाचार के कारण (योग और भोग एक साथ का सिद्धांत) लम्बे समय तक दोनों में शaका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा. मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं. इतिहासकारों नें नाथ परम्परा की पुनर्स्थापना का काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व बताया है.जिसका आधार शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ मन जाता है.

महात्मा बुद्ध काल में सिद्धों में वाम मार्ग का प्रचार बहुतज्यादा था जिसके सिद्धान्त भी बहुत ऊँचे थे,लेकिन साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर तंत्र मर्गियों को बुरा समझा और सभी इसकी आड़ में भोग विलास सहित पापाचार करने लगे. ये सिद्ध वज्रयान के मतानुयायियों का सबसे बुरा काल था. श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं.

यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम था और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं. काबुल-गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था. इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं जैसे- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि. श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा

प्रचलित की थी. कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है.श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी. कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं. चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है. बिना कान फटे साधु को ‘ओघड़’ कहते है और इसका आधा मान होता है. ये आधा अधूरा सा इतिहास है जो नाथों और सिद्धों की एक झलक देता है. सही और सटीक जानकारियां यहाँ देना व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि मूल उद्देश्य से हम भटक जायेंगे.

अब आप संक्षिप्तत: ये समझ लीजिये की वर्तमान नाथ सप्रदाय से पहले एक नाथ संप्रदाय था जिसे सिद्ध संप्रदाय कहा जाता था. इसी सिद्ध संप्रदाय के भागों को ब्रजयानी या कौलाचारी कहा जाता है. किन्तु सिद्ध संप्रदाय के योगी बड़े ही गुप्त नियमों का पालन कर गुफाओं कंदराओं में अपना जीवन जीते थे और आज भी लगभग लुप्त हो चुकी ये परम्परा आखिरी सांस लेती हुई भी जिन्दा है. कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के रूप में. जो इसी सिद्ध परंपरा ब्रज्रयानी और कौलाचारी परम्परा से भी पहले स्थित परम्परा महासिद्ध परम्परा के पूर्ण पुरुष हैं. एक समय सिद्ध और नाथ अलग-अलग हो गए थे अब महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के सत्य ज्ञान नें इस प्राचीन पंथ को एक बार फिर जोड़ कर वापिस धरा पर जीवित किया है.

भारत वर्ष की सबसे पुरानी परम्परा में आप भी जुड़ कर इस विराट का हिस्सा बन सकते हैं. हिमालय पर्वत पर रहने वाले महायोगी आपकी प्रतीक्षा में हैं. अब सिद्ध नाथ परम्परा को कौलान्तक पीठ के रूप में आपको आगे बढ़ाना है और स्वयं प्राप्त करना है वो अमूल्य ज्ञान जिस कारण भारत को पूजा जाता है, जो जीवन को पूर्ण कर देता है. प्राचीन काल में तिब्बत हिन्दू धर्म का प्रमुख केंद्र था। इसे वेद-पुराणों में त्रिविष्टप कहा गया है। तिब्बत प्राचीन काल से ही योगियों और सिद्धों का घर माना जाता रहा है तथा अपने पर्वतीय सौंदर्य के लिए भी यह प्रसिद्ध है। संसार में सबसे अधिक ऊंचाई पर बसा हुआ प्रदेश तिब्बत ही है। तिब्बत मध्य एशिया का सबसे ऊंचा प्रमुख पठार है। वर्तमान में यह बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र है।

तिब्बत का द्रुकपा संप्रदाय और हेमिस मठ

तिब्बत में ही भगवान शिव का निवास स्थान कैलास पर्वत और मानसरोवर स्थित है। इसे धरती का स्वर्ग कहा गया है। महाभारत के महाप्रस्थानिक पर्व में स्वर्गारोहण में स्पष्ट किया गया है कि तिब्बत हिमालय के उस राज्य को पुकारा जाता था जिसमें नंदनकानन नामक देवराज इंद्र का देश था। इससे सिद्ध होता है कि इंद्र स्वर्ग में नहीं धरती पर ही हिमालय के इलाके में रहते थे। वहीं शिव और अन्य देवता भी रहते थे।

राहुलजी सांस्कृतायन के अनुसार तिब्बत के 84 सिद्धों की परम्परा ‘सरहपा’ से आरंभ हुई और नरोपा पर पूरी हुई। सरहपा चौरासी सिद्धों में सर्व प्रथम थे। इस प्रकार इसका प्रमाण अन्यत्र भी मिलता है लेकिन तिब्बती मान्यता अनुसार सरहपा से पहले भी पांच सिद्ध हुए हैं। इन सिद्धों को हिन्दू या बौद्ध धर्म का कहना सही नहीं होगा क्योंकि ये तो वाममार्ग के अनुयायी थे और यह मार्ग दोनों ही धर्म में समाया था। बौद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं कि सिद्धों की वज्रयान शाखा में ही चौरासी सिद्धों की परंपरा की शुरुआत हुई, लेकिन आप देखिए की इसी लिस्ट में भारत में मनीमा को मछींद्रनाथ, गोरक्षपा को गोरखनाथ, चोरंगीपा को चोरंगीनाथ और चर्पटीपा को चर्पटनाथ कहा जाता है। यही नाथों की परंपरा के 84 सिद्ध हैं।

यहां प्रस्तुत है तिब्बत के 84 सिद्धों की लिस्ट

1.लूहिपा, 2.लोल्लप, 3.विरूपा, 4.डोम्भीपा, 5.शबरीपा, 6.सरहपा, 7.कंकालीपा, 8.मीनपा, 9.गोरक्षपा, 10.चोरंगीपा, 11.वीणापा, 12.शांतिपा

13.तंतिपा, 14.चमरिपा, 15.खंड्‍पा, 16.नागार्जुन, 17.कराहपा, 18.कर्णरिया, 19.थगनपा, 20.नारोपा, 21.शलिपा, 22.तिलोपा, 23.छत्रपा, 24.भद्रपा

25.दोखंधिपा, 26.अजोगिपा, 27.कालपा, 28.घोम्भिपा, 29.कंकणपा, 30.कमरिपा, 31.डेंगिपा, 32.भदेपा, 33.तंघेपा, 34.कुकरिपा, 35.कुसूलिपा, 36.धर्मपा

37.महीपा, 38.अचिंतिपा, 39.भलहपा, 40.नलिनपा, 41.भुसुकपा, 42.इंद्रभूति, 43.मेकोपा, 44.कुड़ालिया, 45.कमरिपा, 46.जालंधरपा, 47.राहुलपा, 48.धर्मरिया

49.धोकरिया, 50.मेदिनीपा, 51.पंकजपा, 52.घटापा, 53.जोगीपा, 54.चेलुकपा, 55.गुंडरिया, 56.लुचिकपा, 57.निर्गुणपा, 58.जयानंत, 59.चर्पटीपा

60.चंपकपा, 61.भिखनपा, 62.भलिपा, 63.कुमरिया, 64.जबरिया, 65.मणिभद्रा, 66.मेखला, 67.कनखलपा, 68.कलकलपा, 69.कंतलिया

70.धहुलिपा, 71.उधलिपा, 72.कपालपा, 73.किलपा, 74.सागरपा, 75.सर्वभक्षपा, 76.नागोबोधिपा, 77.दारिकपा

78.पुतलिपा, 79.पनहपा, 80.कोकालिपा, 81.अनंगपा, 82.लक्ष्मीकरा, 83.समुदपा और 84.भलिपा।

नवनाथ : आदिनाथ, अचल अचंभानाथ, संतोषनाथ, सत्यानाथ, उदयनाथ, गजबलिनाथ, चौरंगीनाथ, मत्स्येंद्रनाथ और गौरखनाथ।

इन नामों के अंत में पा जो प्रत्यय लगा है, वह संस्कृत ‘पाद’ शब्द का लघुरूप है। नवनाथ की परंपरा के इन सिद्धों की परंपरा के कारण ही मध्यकाल में हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म के अस्तित्व की रक्षा होती रही। इन सिद्धों के कारण ही अन्य धर्म के संतों की परंपरा भी शुरू हुई। इन सिद्धों के इतिहास को संवरक्षित किए जाने की अत्यंत आवश्यकता है।

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