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अमरनाथ यात्रा का इतिहास

अमरनाथ गुफा हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थस्‍थल है. प्राचीनकाल में इसे अमरेश्वर कहा जाता था. श्रीनगर से करीब 145 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है अमरनाथ गुफा जो हिमालय पर्वत श्रेणियों में स्थित है. समुद्र तल से 3,978 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह गुफा 160 फुट लंबी,100 फुट चौड़ी और काफी ऊंची है. अमरनाथ की गुफा का महत्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि यहां हिम शिवलिंग का निर्माण होता है.

इस गुफा का महत्व इसलिए भी है क्‍योंकि इसी गुफा में भगवान शिव ने अपनी पत्नी देवी पार्वती को अमरत्व का मंत्र सुनाया था. ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव साक्षात श्री अमरनाथ गुफा में विराजमान रहते हैं.भगवान शिव जब पार्वती को अमरकथा सुनाने ले जा रहे थे, तब उन्होंने रास्ते में सबसे पहले पहलगाम में अपने नंदी (बैल) का परित्याग किया.

इसके बाद चंदनबाड़ी में अपनी जटा से चंद्रमा को मुक्त किया. शेषनाग नामक झील पर पहुंच कर उन्होंने गले से सर्पों को भी उतार दिया. प्रिय पुत्र श्री गणेश जी को भी उन्होंने महागुणस पर्वत पर छोड़ देने का निश्चय किया. फिर पंचतरणी नामक स्थान पर पहुंच कर भगवान शिव ने पांचों तत्वों का परित्याग किया.

शास्त्रों के अनुसार इसी गुफा में भगवान शिव ने माता पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था. माता पार्वती के साथ ही इस रहस्य को शुक (तोता) और दो कबूतरों ने भी सुन लिया था. यह शुक बाद में शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गए, जबकि गुफा में आज भी कई श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई देता है जिन्हें अमर पक्षी माना जाता है.

पुराणों के अनुसार काशी में दर्शन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हजार गुना पुण्य देने वाले श्री बाबा अमरनाथ का दर्शन है.अमरनाथ गुफा के अंदर बनने वाला हिम शिवलिंग पक्की बर्फ का बनता है जबकि गुफा के बाहर मीलों तक सर्वत्र कच्ची बर्फ ही देखने को मिलती है. मान्यता यह भी है कि गुफा के ऊपर पर्वत पर श्री राम कुंड है. 

श्री अमरनाथ गुफा में स्थित पार्वती पीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है. मान्यता है कि यहां भगवती सती का कंठ भाग गिरा था.श्री अमरनाथ यात्रा शुरू हो गई है। जिसने कभी अमरनाथ की रोमांचक यात्रा नहीं की, वह बहुत दुर्भाग्यशाली इंसान है, क्योंकि वह धरती के स्वर्ग के एक ख़ास आनंद से वंचित रह गया है। दरअसल, तमाम कठिनाइयों, बाधाओं और ख़तरों के बावजूद मॉनसून के समय दो महीने चलने वाली यह पवित्र यात्रा एक सुखद एहसास तो होती ही है।

यही वजह है कि दिनोंदिन इसे लेकर उत्साह बढ़ता ही जा रहा है।दरअसल, स्थानीय सरकार की लगातार उपेक्षा के बावजूद श्रद्धालुओं का उत्साह कम नहीं हुआ। अब तो अमरनाथ यात्रा धार्मिक यात्रा से बढ़कर राष्‍ट्रीयता का प्रतीक बन गई है। जम्‍मू बेस कैंप से जब श्रद्धालुओं का जत्‍था निलता है तो ‘जय भालेनाथ’ ‘बम-बम भोले’ और ‘हर-हर महादेव’ के साथ साथ ‘वंदे मातरम्’ ‘जयहिंद’ और ‘भारत माता की जय’ के भी सुर निकलते हैं।

यही वजह है कि इस यात्रा पर आतंकवादियों की धमकियों और हमलों का भी कोई असर नहीं पड़ा। जम्मू से लेकर श्रीनगर, पहलगाम-बालटाल ही नहीं, पूरी यात्रा के दौरान जगह-जगह गैरसरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। लोग खाते-पीते धूनी रमाए भोलेनाथ के दर्शन के लिए आगे बढ़ते रहते हैं।

हिमालय की गोदी में स्थित अमरनाथ हिंदुओं का सबसे ज़्यादा आस्था वाला पवित्र तीर्थस्थल है। अमरनाथ की ख़ासियत पवित्र गुफा में बर्फ़ से नैसर्गिक शिवलिंग का बनना है। प्राकृतिक हिम से बनने के कारण ही इसे स्वयंभू ‘हिमानी शिवलिंग’ या ‘बर्फ़ानी बाबा’ भी कहा जाता है।आषाढ़ पूर्णिमा से रक्षाबंधन तक होने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखों श्रद्धालु अमरनाथ यात्रा पर जाते हैं।

गुफा में ऊपर से बर्फ के पानी की बूंदें टपकती रहती हैं। यहीं पर ऐसी जगह है, जहां टपकने वाली हिम बूंदों से क़रीब दस फ़िट ऊंचा शिवलिंग बनता है। चंद्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ बर्फ़ के लिंग का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। सावन की पूर्णिमा को यह पूर्ण आकार में हो जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा हो जाता है।

हैरान करने वाली बात है कि शिवलिंग ठोस बर्फ़ का होता है, जबकि आसपास आमतौर पर कच्ची और भुरभुरी बर्फ़ ही होती है।अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाध में एक मुसलमान गड़ेरिए को चला था। आज भी चौथाई चढ़ावा मुसलमान गड़रिए के वंशजों को मिलता है।

यह एक ऐसा तीर्थस्थल है, जहां फूल-माला बेचने वाले मुसलमान होते हैं। अमरनाथ गुफा एक नहीं है, बल्कि अमरावती नदी पर आगे बढ़ते समय और कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखती हैं। सभी बर्फ से ढकी हैं। मूल अमरनाथ से दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग-अलग हिमखंड हैं।

अमरनाथ जाने के दो मार्ग हैं। पहला पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग बालटाल से। जम्मू या श्रीनगर से पहलगाम या बालटाल बस या छोटे वहन से पहुंचना पड़ता है। उसके बाद आगे पैदल ही जाना पड़ता है। कमज़ोर और वृद्धों के लिए खच्चर और घोड़े की व्यवस्था रहती है। पहलगाम से जानेवाला रास्ता सरल और सुविधाजनक है।

बालटाल से पवित्र गुफा की दूरी हालांकि केवल 14 किलोमीटर है, परंतु यह सीधी चढ़ाई वाला बहुत दुर्गम रास्ता है, इसलिए सुरक्षा की नज़रिए से ठीक नहीं है, इसलिए इसे सेफ नहीं माना जाता। लिहाज़ा, ज़्यादातर यात्रियों को पहलगाम से जाने के लिए कहा जाता है। हालांकि रोमांच और ख़तरे से खेलने के शौकीन इस मार्ग से जाना पसंद करते हैं। इस रास्ते से जाने वाले लोग अपने रिस्क पर यात्रा करते हैं। किसी अनहोनी की ज़िम्मेदारी सरकार नहीं लेती है।

दरअसल, श्रीनगर से पहलगाम 96 किलोमीटर दूर है। यह वैसे भी देश का मशहूर पर्यटन स्थल है। यहां का नैसर्गिक सौंदर्य देखते ही बनता है। लिद्दर और आरू नदियां इसकी ख़ूबसूरती में चार चांद लगाती हैं। पहलगाम का यात्री बेस केंप छह किलोमीटर दूर नुनवन में बनता है। पहली रात भक्त यहीं बिताते हैं। दूसरे दिन यहां से 10 किलोमीटर दूर चंदनबाड़ी पहुंचते हैं।

चंदनबाड़ी से आगे इसी नदी पर बर्फ़ का पुल है। यहीं से पिस्सू घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। कहा जाता है कि पिस्सू घाटी में देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई, जिसमें राक्षसों की हार हुई। यात्रा में पिस्सू घाटी जोख़िम भरा स्थल है। यह समुद्रतल से 11120 फ़ीट ऊंचाई पर है।पिस्सू घाटी के बाद अगला पड़ाव 14 किलोमीटर दूर शेषनाग में पड़ता है।

लिद्दर नदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यात्रा बहुत कठिन होती है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और ख़तरनाक है। यात्री शेषनाग पहुंचने पर भयानक ठंड का सामना करता है। यहां पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की खूबसूरत झील है। इसमें झांकने पर भ्रम होता है कि आसमान झील में उतर आया है। झील करीब डेढ़ किलोमीटर व्यास में फैली है।

कहा जाता है कि शेषनाग झील में शेषनाग का वास है। 24 घंटे में शेषनाग एक बार झील के बाहर निकलते हैं, लेकिन दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होता है। तीर्थयात्री यहां रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं।शेषनाग से पंचतरणी 12 किलोमीटर दूर है। बीच में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे पार करने पड़ते हैं, जिनकी समुद्रतल से ऊंचाई क्रमश: 13500 फ़ीट व 14500 फ़ीट है।

महागुणास चोटी से पंचतरणी का सारा रास्ता उतराई का है। यहां पांच छोटी-छोटी नदियों बहने के कारण ही इसका नाम पंचतरणी पड़ा। यह जगह चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊंचाई की वजह से ठंड भी बहुत ज़्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहां सुरक्षा के इंतज़ाम करने पड़ते हैं।

पवित्र अमरनाथ की गुफा यहां से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती है। रास्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। इसी दिन गुफा के नज़दीक पहुंचकर लोग रात बिता सकते हैं और दूसरे दिन सुबह पूजा-अर्चना कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। कुछ यात्री शाम तक शेषनाग वापस पहुंच जाते हैं। रास्ता काफी कठिन है, लेकिन पवित्र गुफा में पहुंचते ही सफ़र की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।

दरअसल, जब चंदनवाड़ी या बालटाल से श्रद्धालु निकलते हैं, तो रास्ते भर उन्हें प्रतिकूल मौसम का सामना करना पड़ता है। पूरा बेल्‍ट यानी चंदनवाड़ी, पिस्‍सू टॉप, ज़ोली बाल, नागा कोटि, शेषनाग, वारबाल, महागुणास टॉप, पबिबाल, पंचतरिणी, संगम टॉप, अमरनाथ, बराड़ी, डोमेल, बालटाल, सोनमर्ग और आसपास का इलाक़ा साल के अधिकांश समय बर्फ़ से ढंका रहता है।

इससे इंसानी गतिविधियां महज कुछ महीने रहती हैं। बाक़ी समय यहां का मौसम इंसान के रहने लायक नहीं होता। गर्मी शुरू होने पर यहां बर्फ पिघलती है और अप्रैल से यात्रा की तैयारी शुरू की जाती है।पवित्र गुफा की ओर जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए चंदनवाड़ी से अमरनाथ और बालटाल के बीच ठहरने या विश्राम करने का कोई अच्छा ठिकाना नहीं है।

30 किलोमीटर से अधिक लंबे रास्‍ते में अकसर तेज़ हवा के साथ कभी हल़की तो कभी भारी बारिश होती रहती है और श्रद्धालुओं के पास भीगने के अलावा और कोई विकल्‍प नहीं होता। बचने के लिए कहीं कोई शेड नहीं है, सो बड़ी संख्‍या में लोग बीमार भी हो जाते हैं। यही वजह है कि कमज़ोर कद-काठी के यात्री शेषनाग की हड्डी ठिठुराने वाली ठंड सहन नहीं कर पाते और उनकी मौत तक हो जाती है, इसलिए मेडिकली अनफिट लोगों को अमरनाथ यात्रा पर नहीं जाने की सलाह दी जाती है।

दरअसल, आतंकवाद और धमकियों के बावजूद शेष भारत से लोगों, का जम्‍मू कश्‍मीर आना-जाना कम होने की बजाय बढ़ता ही गया। वजह रहे वैष्‍णोदेवी, अमरनाथ, शिवखोड़ी, खीर भवानी और बुड्ढा अमरनाथ जैसे धार्मिक स्‍थल। पहले वैष्‍णोदेवी की चढ़ाई लो‍कप्रिय हुई, फिर अमरनाथ यात्रा। देश भर से अमरनाथ गुफा जाने वालो की संख्या लगातार बढ़ ही रही है।

श्रद्धालुओं को हतोत्साहित करने के लिए कभी लिंग के पिघलने तो कभी कृत्रि‍म लिंग लगाने का विवाद खड़ा किया गया, परंतु श्रद्धा कम नहीं हुई।लोगों की बढ़ती भीड़ को देखकर सन् 2000 में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड की भी स्‍थापना की गई। श्रद्धालुओं की इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए केंद्र के आग्रह पर ग़ुलाम नबी आज़ाद सरकार ने 26 मई 2008 को श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को बालटाल के पास डोमेल में वन विभाग की 800 कनाल यानी 40 हेक्‍टेयर ज़मीन आवंटित की थी, ताकि यात्रियों की सुविधा के लिए अस्थाई शिविर यानी टेंपररी शेड बनाए जा सकें।

प्रस्‍तावित शेल्‍टर में नहाने, खाने और रात में ठहरने की सु‍विधा होती। बदले में 2.5 करोड़ रुपए का मुआवजा भी तय किया गया था। हालांकि पहले मामला जम्‍मू–कश्‍मीर हाईकोर्ट में गया, जहां अदालत ने साफ़ कहा कि यात्रियों की सुविधा के लिए प्रीफैब्रिकेटिड हट बनाए जाएं और अन्य सुविधाएं दी जाएं।मौजूदा मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ़्ती, उनकी पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और घाटी के अलगाववादी नेताओं ने ज़मीन हस्तांतरण का भारी विरोध किया था।

इनकी शह पर श्रीनगर में हिंसा हुई, जहां पुलिस की गोली से कई उपद्रवी मारे गए। तब राज्य में कांग्रेस-पीडीपी गठजोड़ की सरकार थी। मेहबूबा ने धमकी दी कि ज़मीन आवंटन रद्द नहीं हुआ तो समर्थन वापस ले लेंगी। लिहाज़ा, पहली जुलाई 2008 को ज़मीन का आवंटन रद्द कर दिया गया और श्राइन बोर्ड के मुख्‍य कार्यकारी व राज्‍यपाल के प्रधान सविच अरुणकुमार को भी बर्खास्‍त कर दिया गया।

इस तरह अमरनाथ की कठिन यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए उनके अपने देश में शिविर बनाने का सपना साकार नहीं हो सका।वैसे अस्‍थाई शेड की ज़रूरत बालटाल ही नहीं, डोमेल, संगम टॉप, अमरनाथ, पंचतरिणी, पिस्‍सू टॉप, चंदनवाड़ी और नुनवन में भी है, क्‍योंकि कपड़े के जो टेंट बनाते हैं, उसमें श्रद्धालु भीग जाते हैं। राज्य में ऐसा पहली बार नहीं हुआ था कि किसी संस्थान को वन विभाग की भूमि दी गई हो।

राजौरी में बाबा बडशाह गुलाम यूनिवर्सिटी के लिए पांच हजार कनाल भूमि दी गई। इसी तरह कई मजहबी तंजीम को वन विभाग की ज़मीन दी जा चुकी है। इतना ही नहीं वन भूमि की ज़मीन के लिए आंसू बहाने वाले कई कश्मीरी नेताओं ने अपना घर बन विभाग की ज़मीन पर क़ब्‍ज़ा करके बनवाया है।

दरअसल, यह कश्‍मीरियों के आतिथ्‍य का असर रहा है कि सदियों से लोग ख़ूबसूरत पहाड़ों और झीलों का आनंद लेने धरती के इस स्‍वर्ग पर आते रहे हैं। बेहतरीन मेजबानी के लिए मशहूर कश्‍मीरी आवाम जागरूक और संवेदनशील मानी जाती रही है। उसी अवाम की तहज़ीब और डेमोग्राफी केवल 40 हेक्‍टर ज़मीन श्राइन बोर्ड को देने से से ख़तरे में पड़ गई थी।

भारत में हर धर्म के लोग रहते हैं, हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख हों या ईसाई हों, केंद्र या राज्‍य सरकारें सभी महत्‍वपूर्ण धर्मथलों पर बुनियादी सुविधा उपलब्‍ध कराने के लिए कश्‍मीर से कन्‍याकुमारी और गुजरात से बंगाल तक कहीं भी ज़मीन आवंटित करने का अधिकार होना चाहिए ताकि जो लोग कहीं जाते हैं, उन्हें बेहतर सुविधाएं दी जा सकें।

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