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हिन्दू धर्म और पवित्र 10 ध्वनियां Hinduism and Sacred Sound

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हिन्दू धर्म और पवित्र 10 ध्वनियां Hinduism and Sacred Sound

हिन्दू धर्म का नृत्य, कला, योग और संगीत से गहरा नाता रहा है। हिन्दू धर्म मानता है कि ध्वनि और शुद्ध प्रकाश से ही ब्रह्मांड की रचना हुई है। आत्मा इस जगत का कारण है। चारों वेद, स्मृति, पुराण और गीता आदि धार्मिक ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को साधने के हजारो हजार उपाय बताए गए हैं। उन उपायों में से एक है संगीत। संगीत की कोई भाषा नहीं होती। संगीत आत्मा के सबसे ज्यादा नजदीक होता है। शब्दों में बंधा संगीत विकृत संगीत माना जाता है।

प्राचीन परंपरा :

भारत में संगीत की परंपरा अनादिकाल से ही रही है। हिन्दुओं के लगभग सभी देवी और देवताओं के पास अपना एक अलग वाद्य यंत्र है। विष्णु के पास शंख है तो शिव के पास डमरू, नारद मुनि और सरस्वती के पास वीणा है, तो भगवान श्रीकृष्ण के पास बांसुरी। खजुराहो के मंदिर हो या कोणार्क के मंदिर, प्राचीन मंदिरों की दीवारों में गंधर्वों की मूर्तियां आवेष्टित हैं। उन मूर्तियों में लगभग सभी तरह के वाद्य यंत्र को दर्शाया गया है। गंधर्वों और किन्नरों को संगीत का अच्छा जानकार माना जाता है।

सामवेद उन वैदिक ऋचाओं का संग्रह मात्र है, जो गेय हैं। संगीत का सर्वप्रथम ग्रंथ चार वेदों में से एक सामवेद ही है। इसी के आधार पर भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र लिखा और बाद में संगीत रत्नाकर, अभिनव राग मंजरी लिखा गया। दुनियाभर के संगीत के ग्रंथ सामवेद से प्रेरित हैं।

संगीत का विज्ञान :

हिन्दू धर्म में संगीत मोक्ष प्राप्त करने का एक साधन है। संगीत से हमारा मन और मस्तिष्क पूर्णत: शांत और स्वस्थ हो सकता है। भारतीय ऋषियों ने ऐसी सैकड़ों ध्वनियों को खोजा, जो प्रकृति में पहले से ही विद्यमान है। उन ध्वनियों के आधार पर ही उन्होंने मंत्रों की रचना की, संस्कृत भाषा की रचना की और ध्यान में सहायक ध्यान ध्वनियों की रचना की। इसके अलावा उन्होंने ध्वनि विज्ञान को अच्छे से समझकर इसके माध्यम से शास्‍‍त्रों की रचना की और प्रकृति को संचालित करने वाली ध्वनियों की खोज भी की। आज का विज्ञान अभी भी संगीत और ध्वनियों के महत्व और प्रभाव की खोज में लगा हुआ है, लेकिन ऋषि-मु‍नियों से अच्छा कोई भी संगीत के रहस्य और उसके विज्ञान को नहीं जान सकता।

प्राचीन भारतीय संगीत दो रूपों में प्रचलन में था-1. मार्गी और 2. देशी। मार्गी संगीत तो लुप्त हो गया लेकिन देशी संगीत बचा रहा जिसके मुख्यत: दो विभाजन हैं- 1. शास्त्रीय संगीत और 2. लोक संगीत।

शास्त्रीय संगीत शास्त्रों पर आधारित और लोक संगीत काल और स्थान के अनुरूप प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में स्वाभाविक रूप से पलता हुआ विकसित होता रहा। हालांकि शास्त्रीय संगीत को विद्वानों और कलाकरों ने अपने-अपने तरीके से नियमबद्ध और परिवर्तित किया और इसकी कई प्रांतीय शैलियां विकसित होती चली गईं तो लोक संगीत भी अलग-अलग प्रांतों के हिसाब से अधिक समृद्ध होने लगा।

बदलता संगीत :

मुस्लिमों के शासनकाल में प्राचीन भारतीय संगीत की समृद्ध परंपरा को अरबी और फारसी में ढालने के लिए आवश्यक और अनावश्यक और रुचि के अनुसार उन्होंने इसमें अनेक परिवर्तन किए। उन्होंने उत्तर भारत की संगीत परंपरा का इस्लामीकरण करने का कार्य किया जिसके चलते नई शैलियां भी प्रचलन में आईं, जैसे खयाल व गजल आदि। बाद में सूफी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान पाश्चात्य संगीत से भी भारतीय संगीत का परिचय हुआ। इस दौर में हारमोनियम नामक वाद्य यंत्र प्रचलन में आया।

दो संगीत पद्धतियां :

इस तरह वर्तमान दौर में हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटकी संगीत प्रचलित है। हिन्दुस्तानी संगीत मुगल बादशाहों की छत्रछाया में विकसित हुआ और कर्नाटक संगीत दक्षिण के मंदिरों में विकसित होता रहा।

हिन्दुस्तानी संगीत :

यह संगीत उत्तरी हिन्दुस्तान में- बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, जम्मू-कश्मीर तथा महाराष्ट्र प्रांतों में प्रचलित है।

कर्नाटक संगीत :

यह संगीत दक्षिण भारत में तमिलनाडु, मैसूर, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश आदि दक्षिण के प्रदेशों में प्रचलित है।

वाद्य यंत्र :

मुस्लिम काल में नए वाद्य यंत्रों की भी रचना हुई, जैसे सरोद और सितार। दरअसल, ये वीणा के ही बदले हुए रूप हैं। इस तरह वीणा, बीन, मृदंग, ढोल, डमरू, घंटी, ताल, चांड, घटम्, पुंगी, डंका, तबला, शहनाई, सितार, सरोद, पखावज, संतूर आदि का आविष्कार भारत में ही हुआ है। भारत की आदिवासी जातियों के पास विचित्र प्रकार के वाद्य यंत्र मिल जाएंगे जिनसे निकलने वाली ध्वनियों को सुनकर आपके दिलोदिमाग में मदहोशी छा जाएगी।

उपरोक्त सभी तरह की संगीत पद्धतियों को छोड़कर आओ हम जानते हैं, हिन्दू धर्म के धर्म-कर्म और क्रियाकांड में उपयोग किए जाने वाले उन 10 प्रमुख वाद्य यंत्रों को जिनकी ध्वनियों को सुनकर जहां घर का वस्तु दोष मिटता है वहीं मन और मस्तिष्क भी शांत हो जाता है।

मंदिर की घंटी (bells) :

जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद था, घंटी की ध्वनि को उसी नाद का प्रतीक माना जाता है। यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है।
जिन स्थानों पर घंटी बजने की आवाज नियमित आती है, वहां का वातावरण हमेशा शुद्ध और पवित्र बना रहता है। इससे नकारात्मक शक्तियां हटती हैं। नकारात्मकता हटने से समृद्धि के द्वार खुलते हैं। प्रात: और संध्या को ही घंटी बजाने का नियम है, वह भी लयपूर्ण।

घंटी या घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है। ऐसा माना जाता है कि जब प्रलय काल आएगा, तब भी इसी प्रकार का नाद यानी आवाज प्रकट होगी।

शंख (conch) :

शंख को नादब्रह्म और दिव्य मंत्र की संज्ञा दी गई है। शंख समुद्र मंथन के समय प्राप्त 14 अनमोल रत्नों में से एक है। लक्ष्मी के साथ उत्पन्न होने के कारण इसे लक्ष्मी भ्राता भी कहा जाता है। यही कारण है कि जिस घर में शंख होता है वहां लक्ष्मी का वास होता है।
कई देवी-देवतागण शंख को अस्त्र रूप में धारण किए हुए हैं। महाभारत में युद्धारंभ की घोषणा और उत्साहवर्धन हेतु शंख नाद किया गया था।

शंख के मुख्यतः 3 प्रकार होते हैं- वामावर्ती, दक्षिणावर्ती तथा गणेश शंख। उक्त 3 प्रकार के अनेक प्रकार होते हैं- इसके अलावा गोमुखी शंख, विष्णु शंख, पांचजन्य शंख, अन्नपूर्णा शंख, मोती शंख, हीरा शंख, शेर शंख आदि।

शंख सूर्य व चंद्र के समान देवस्वरूप हैं जिसके मध्य में वरुण, पृष्ठ में ब्रह्मा तथा अग्र में गंगा और सरस्वती नदियों का वास है। तीर्थाटन से जो लाभ मिलता है, वही लाभ शंख के दर्शन और पूजन से मिलता है।

बांसुरी (flute) :

ढोल मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा, पखावज और एकतारा में सबसे प्रिय बांस निर्मित बांसुरी भगवान श्रीकृष्ण को अतिप्रिय है।

इसे वंसी, वेणु, वंशिका और मुरली भी कहते हैं। बांसुरी से निकलने वाला स्वर मन-मस्तिष्क को शांति प्रदान करता है। जिस घर में बांसुरी रखी होती है वहां के लोगों में परस्पर प्रेम तो बना रहता है, साथ ही सुख-समृद्धि भी बनी रहती है।

वीणा (lyre) :

वीणा एक ऐसा वाद्य यंत्र है जिसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत में किया जाता है, जैसे दुर्गा के हाथों में तलवार, लक्ष्मी के हाथों में कमल का फूल होता है उसी तरह मां सरस्वती के हाथों में ‍वीणा होती है।
वीणा शांति, ज्ञान और संगीत का प्रतीक है। सरस्वती और नारद का वीणा वादन तो जगप्रसिद्ध है ही।

वीणा के प्रमुख दो प्रकार हैं- रुद्र वीणा और विचित्र वीणा। यह मूलत: 4 तार की होती है, लेकिन यह शुरुआत में यह एक तार की हुआ करती थी। वीणा से निकली ध्वनी मन के तार छेड़ देती है। इसे सुनने से मन और शरीर के सारे रोग मिट जाते हैं। वीणा से ही सितार, गिटार और बैंजो का आविष्कार हुआ।

मंजीरा :

इसे भारत के अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे झांझ, तला, मंजीरा, कफी आदि। ये फैले हुए शंकु के आकार के ब्रास के बने दो छल्ले होते हैं, जो आपस में एक धागे की सहायता से बंधे होते हैं।
इन्हें दोनों हाथों में पकड़कर आपस में लड़ाकर बजाया जाता है। कुछ कलाकार इन्हें एक हाथ की ही उंगलियों में फंसाकर बजाते हैं।

मंजीरा को आसानी से कहीं भी भजन-कीर्तन में बजते देखा-सुना जा सकता है। अधिकतर इसका प्रयोग राजस्थान के प्राय: सभी लोकनाट्यों तथा नृत्यों में किया जाता है।

करतल :

इसे खड़ताल भी कहते हैं। इस वाद्य यंत्र को आपने नारद मुनि के चित्र में उनके हाथों में देखा होगा। यह भी भजन और कीर्तन में उपयोग किया जाना वाला यंत्र है। इसका आकार धनुष की तरह होता है।
इस वाद्य का निर्माण लगभग एक फीट की दो लकड़ी के टुकड़े पर किया जाता है। इस लकड़ी के सिरे पर लोहे या पीतल के गोल-गोल टुकड़े लगा दिए जाते हैं।

एक हाथ में दोनों टुकड़ों को पकड़कर उन्हें आपस में लड़ाया जाता है जिससे ताल निकलती है। राजस्थानी लोक संगीत में भी करतल का बहुत उपयोग होता है।

पुंगी या बीन :

यह वाद्य यंत्र भी भारत में प्राचीनकाल से ही प्रचलित है। अक्सर यह सपेरों के पास देखा जाता है। हालांकि इसके और भी काम होते हैं लेकिन सपेरों के पास देखे जाने के कारण यह मान्यता प्रचलित हो गई कि इसे सांप को पकड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

यह आमतौर पर बांस की दो पतली छड़ों का बना होता है जिसमें से एक का काम होता है धुन पैदा करना वहीं दूसरी नली ताल निकालने में काम आती है। बांस की दोनों ही नलियां एक बड़े खोखले टुकड़े से जुड़ी होती हैं, जो कई बार नारियल के खोल से भी बनता है। फूंक मारकर बजाने पर बांस की नलियों में कंपन होता है जिससे एक पतली आवाज निकलती है।

ढोल :

ढोलक कई प्रकार के होते हैं। अक्सर इन्हें मांगलिक कार्यों के दौरान बजाया जाता है। ढोल भारत के बहुत पुराने ताल वाद्य यंत्रों में से है। ये हाथ या छड़ी से बजाए जाने वाले छोटे नगाड़े हैं, जो मुख्य रूप से लोक संगीत या भक्ति संगीत को ताल देने के काम आते हैं।

ढोलक आम, बीजा, शीशम, सागौन या नीम की लकड़ी से बनाई जाती है। लकड़ी को पोला करके दोनों मुखों पर बकरे की खाल को मजबूत सूत की रस्सियों से कसा जाता है। रस्सी में छल्ले रहते हैं, जो ढोलक का स्वर मिलाने में काम आते हैं। चमड़े अथवा सूत की रस्सी द्वारा इसको खींचकर कसा जाता है। ढोलक और ढोलकी को अधिकतर हाथ से बजाया जाता है जबकि ढोल को अलग-अलग तरह की छड़ियों से।

प्राचीनकाल में ढोल का प्रयोग महत्वपूर्ण था। यह पूजा और नृत्य गान के अलवा खूंखार जानवरों को भगाने के काम भी आता था। इसके अलावा इसका उपयोग चेतावनी के रूप में भी किया जाता था।

नगाड़ा :

नगाड़ा प्राचीन समय से ही प्रमुख वाद्य यंत्र रहा है। इसे बजाने के लिए लकड़ी की डंडियों से पीटकर ध्वनि निकाली जाती है। वास्तव में नक्कारा, नगारा या नगाड़ा संदेश प्रणाली से जुड़ा हुआ शब्द है।
हालांकि बाद में इसका उपयोग लोक उत्सवों, आरती आदि के अवसर पर भी किया जाना लगा। इसे दुंदुभी भी कहा जाता है।

मृदंग :

यह दक्षिण भारत का एक थाप यंत्र है। कर्नाटक संगीत में इसका ताल यंत्र के रूप में उपयोग होता है। बहुत ही मधुर आवाज के इस यंत्र का इस्तेमाल गांवों में कीर्तन गीत गाने के दौरान किया जाता है। ढोल के दोनों सिरे समान होते हैं जबकि मृदंग का एक सिरा काफी छोटा और दूसरा सिरा काफी बड़ा (लगभग 10 इंच) होता है।

नवरात्रि उत्सव के दौरान इसका उपयोग होगा है। अधिकतर आदिवासी इलाके में ढोल के साथ मृदंग का उपयोग भी होता है।

डमरू :

डमरू या डुगडुगी एक छोटा संगीत वाद्य यंत्र होता है। डमरू का हिन्दू, तिब्बती वबौद्ध धर्म में बहुत महत्व माना गया है। भगवान शंकर के हाथों में डमरू को दर्शाया गया है। साधु और मदारियों के पास अक्सर डमरू मिल जाएगा।

शंकु आकार के बने इस ढोल के बीच के तंग हिस्से में एक रस्सी बंधी होती है जिसके पहले और दूसरे सिरे में पत्थर या कांसे का एक-एक टुकड़ा लगाया जाता है। जब डमरू को बीच में से पकड़कर हिलाया जाता है तो यह डला (टुकड़ा) पहले एक मुख की खाल पर प्रहार करता है और फिर उलटकर दूसरे मुख पर, जिससे ‘डुग-डुग’ की आवाज उत्पन्न होती है।

अंत में कुछ खास ध्वनियां…

चिमटा :

लगभग एक मीटर लंबे लोहे के चिमटे की दोनों भुजाओं पर पीतल के छोटे-छोटे चक्के कुछ ढीलेपन के साथ लगाकर इस यंत्र का निर्माण किया जाता। इसे हिलाकर या हाथ पर मारकर बजाया जाता है। अधिकतर इसका उपयोग नाथ साधु करते हैं।

तुनतुना :

यह लंबाई में एक से दो फुट का होता है जिसमें मोटे डंडे पर एक तार दो सिरों के बीच कसा होता है। एक सिरे पर तार को कसने और उसमें तनाव पैदा करने के लिए गुठली होती है और दूसरे सिरे पर एक खोखले सिलेंडर के आकार का बर्तन जिससे ध्वनि निकलती है।

घाटम :

घाटम मिट्टी का बना एक बर्तन होता है। इसका सबसे ज्यादा प्रयोग दक्षिण भारत के सांस्कृतिक संगीत में होता है। इसे हाथ की थाप मारकर बजाया जाता है।

दोतार :

यह लकड़ी की आसान बनावट का एक वाद्य यंत्र होता है जिसका लोक संगीत में बहुत प्रयोग होता है। यह एक ऐसा यंत्र है, जो किसी न किसी रूप में भारत के हर हिस्से के लोक संगीत में पुराने समय से ही शामिल रहा है।

तबला :

इसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है। भारत के महाराष्ट्र राज्य में भोज की गुफाओं में 200 ईपू की मूर्तियों में महिलाएं तबला बजाते और नृत्य करते हुए अंकित की गई हैं।

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