जिस प्रकार खान से सोना हीरा आदि निकलने पर उसमें चमक, प्रकाश तथा सौंदर्य के लिए उसे तपाशकर, तराशकर उसका मल हटाना एवं चिकना करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार मनुष्य में मानवीय शक्ति का आधान होने के लिए उसे सुसंस्कृत अर्थात् संस्कारवान् बनाने के लिए उसका पूर्णतः विधिवत् संस्कार-संपन्न करना आवश्यक है। विधिपूर्वक संस्कार-साधन से दिव्य ज्ञान उत्पन्न करके आत्मा को परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित करना ही ‘संस्कार’ है और मानव जीवन प्राप्त करने की सार्थकता भी इसी में है।
‘संस्कार’ मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते हैं। संस्कारों की आत्मा की शुद्धि होती है, विचार व कर्म शुद्ध होते हैं। इसीलिए ‘संस्कारों’ की आवश्यकता है। ‘संस्कार’ मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं–(1) मलापनयन, (2) अतिशयाधान और (3) न्यूनांगपूरक। (1) मलापनयन–किसी दर्पण आदि पर पड़ी हुए धूल आदि सामान्य मल (गंदगी) को कपड़े आदि से पोंछना-हटाना या स्वच्छ करना ‘मलापनयन’ कहलाता है।
(2) अतिशयाधान–किसी रंग या तेजोमय पदार्थ द्वारा उसी दर्पण को विशेष रूप से प्रकाशमय बनाना या चमकाना ‘अतिशयाधान’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में इसे भावना, प्रतियत्न या गुणाधान-संस्कार भी कहा जाता है।
(3) न्यूनांगपूरक–अनाज के भोज्य पदार्थ बन जाने पर दाल, शाक, घृत आदि वस्तुएँ अलग से लाकर मिलाई जाती हैं। उसके (अनाज के) हीन (कमीवाले) अंगों की पूर्ति की जाती हैं, जिससे वह अनाज (अन्न) रुचिकर और पौष्टिक बन सके। इसे तृतीय संस्कार को न्यूनांगपूरक संस्कार कहते हैं।
अतः गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के मलों का शोधन, सफाई आदि कार्य विशिष्ट विधिक क्रियाओं व मंत्रों से करने को ‘संस्कार’ कहा जाता है।
मनुष्य के जीवन के तीन मुख्य आधार माने गए हैं–(1) उसकी चेतना शक्ति, जिससे जीवन मिलता है। शरीर में स्थित इसे ही ‘आत्मा’ कहा जाता है। यह आत्मा विश्वव्यापी परम चेतना शक्ति ‘परमात्मा’ का ही एक अंश है, जो आत्मा से भिन्न न होने हुए भी मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि के कारण भिन्न प्रतीत होने लगता है। इसी कारण इसे ‘जीवात्मा’ या ‘जीव’ कहा जाता है। यही चेतना-शक्ति वनस्पति से लेकर मनुष्य तक सभी के जीवन का आधार है। मनुष्य में इस चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है, इसीलिए यह प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहलाता है।
मनुष्य का दूसरा बड़ा आधार उसका ‘मन’ है। ‘मन’ इसी चेतना-शक्ति की एक विशेष रचना है, जो चेतना-शक्ति से सक्रिय होकर मनुष्य के सभी कर्मों का कारण बनता है। अतः मनुष्यकृत कर्मों का कारण चेतना-शक्ति (आत्मा) नहीं, अपितु ‘मन’ ही है। मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे सभी कर्म ‘मन’ से ही करता है। बार-बार कर्म करने से वे ही कर्म उसकी आदतें बन जाती हैं। ये आदतें (स्वभाव) ही बीज रूप में उसके मन के गहरे स्तर पर जमा होती रहती हैं, जो मृत्यु के पश्चात् ‘मन’ के साथ ही सूक्ष्म शरीर में बनी रहती है और नया जन्म, नया शरीर धारण करने पर अगले जन्म में भी पिछले जन्मों के अनुसार उसी प्रकार के कर्म करने की प्रेरणा बन जाती हैं। इसे ही ‘संस्कार’ कहा जाता है।
ये ‘संस्कार’ ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे ‘संचित कर्म’ कहते हैं। इन संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियाँ भी इन पर प्रभाव डालती हैं।