संस्कार किसे कहते हैं ? अर्थ व परिभाषा

यज्ञांगपुरोडाशेष्विति द्रव्यधर्मः। (वाचस्पत्य वृहदभिधान, 5, पृष्ठ 5188)। अद्वैतवेदांती जीव पर शारीरिक, क्रियाओं के मिध्या आरोप को संस्कार मानते हैं–‘स्नानाचमनादिजन्याः संस्कारा देहे उत्पद्यमानानि तदभिधानानि जीवे कल्प्यन्ते।’ (वही) नैय्यायिक भावों को व्यक्ति करने की आत्मव्यंजक शक्ति को संस्कार समझते हैं, जिसका परिगणन वैशेषिक दर्शन में चौबीस गुणों के अंतर्गत किया गया है। इसके अंतर्गत किया गया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत साहित्य में ‘संस्कार’ शब्द का प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण (निसर्गसंस्कार विनीत इत्यसौ नृपेण चक्रे युवराज शब्दभाक्–रघुवंश, 3,35); सौजन्य, पूर्णता, व्याकरण संबंधी शुद्धि–‘संस्कारवत्येव गिरा मनीषी तया स पूतश्च विभूषितश्च।’ (कुमारसंभव, 1,28); संस्करण, परिष्करण–‘प्रयुक्त संस्कार इवाधिकं बभौ’ (रघुवंश, 3,18); शोभा, आभूषण–‘स्वभाव सुन्दरं वस्तु न संस्कारमपेक्षणे।’ (शाकुंतल, 7,33); प्रस्ताव, स्वरूप, स्वभाव, क्रिया, छाप–‘यन्नवे भाजनेय लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत्।’ (हितोपदेश 1,8); स्मरणशक्ति, स्मरणशक्ति पर पड़नेवाला प्रभाव– ‘संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिः।’ (तर्कसंग्रह); शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि-विधान–‘कार्यः शरीर-संस्कार पावनः प्रेत्य चेह च’ (मनुस्मृति, 2,27); अभिषेक, विचार, भावना, धारणा, कार्य का परिणाम, क्रिया की विशेषता–‘फलानमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव।’ (रघुवंश, 1,20) आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘संस्कार’ शब्द के साथ विलक्षण अर्थों का योग हो गया है, जो इसके दीर्घ इतिहास-क्रम इसके साथ संयुक्त हो गए हैं। इसका अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कार के लिए किए जानेवाले अनुष्ठानों में से है, जिनसे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य बन सके। किंतु हिंदू संस्कारों में अनेक आरंभिक विचार, धार्मिक विधि-विधान, उनके सहवर्ती नियम तथा अनुष्ठान भी समाविष्ट हैं, जिनका उद्देश्य मात्र औपचारिक दैहिक संस्कार ही न होकर संस्कारित व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व का परिष्कार, शुद्धि और पूर्णता भी है। इससे यह समझा जाता है कि सविधि-संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कारित व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है–आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योऽतिशयविशेषः संस्कारः। (वीरमित्रोदय, संस्कारभाष्य, पृष्ठ 132)
संस्कृति की भूमि पर ‘संस्कार’ आधारित है। ‘संस्कार’ ही हिंदू धर्म या संस्कृति के जन्म और उत्कर्ष

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