निर्माताः यूटीवी
निर्देशकः इम्तियाज अली
सितारेः रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण
रेटिंग *1/2
अगर आपने फिल्म तमाशा को लेकर कोई आध्यात्मिक अर्थ लगा रखा हो कि यह दुनिया फानी है और हमें यहां कमल के पत्ते पर जल की तरह रहना चाहिए, वगैरह तो टिकट खरीदने से पहले एक बार जरूर सोच लें। तमाशा अपने साधारण अर्थों में वाकई ऐसा तमाशा है जिसके अर्थ ढूंढने की मशक्कत आपको बोर कर देगी। एक बहुत सरल सी बात है कि आज आदमी अपनी जिंदगी में रोबोट की तरह हो चुका है और धन कमाने का दबाव इतना अधिक है कि वह मन की करने से पहले सौ बार सोचता है। मन की कर-गुजरने और जीने वाले खुशकिस्मत लोग किस्से-कहानियों जैसे लगते हैं।
इम्तियाज असली ने इंसान के रोबोट के विरुद्ध अपनी संवेदना आधार बना कर यह फिल्म रची है। वेद (रणबीर कपूर) और तारा (दीपिका पादुकोण) विदेशी जमीन पर मिलते हैं। वे तय करते हैं कि अपना नाम-काम और किसी तरह का सच एक-दूसरे से नहीं बताएंगे और वहां दिन मौज-मस्ती में बिताएंगे। नाच-गाने और सीमाओं में बंधे रोमांस में ये दिन चुटकी बजाते निकल जाते हैं और तारा अपने घर हिंदुस्तान लौट जाती है।
वेद कब लौटता है आपको पता ही नहीं चलता। अचानक आप पाते हैं कि हंसता-मुस्कराता देव आनंद की नकल उतारता वेद तारा की यादों में सदा के लिए बस गया है और वह प्यार में डूबी उसे ढूंढने निकल पड़ी है। वेद उसे मिलता भी है… मगर इस बार वह एक कंपनी में काम करने वाला मार्केटिंग मैनेजरनुमा जीव है। उसे पता ही नहीं कि उसके इस रूप के बाहर भी कोई जिंदगी है। हालांकि अंदर की बात यह है कि वेद खुद यह जीवन जीना नहीं चाहता। बचपन से उसका मन किस्से-कहानियों में लगता है।
शिमला में उसके घर के पास एक बूढ़ा पांच-दस रुपये लेकर उसे रामायण-महाभारत-लैला मजनूं की कहानियां सुनाता रहा है। लेकिन रोबोटिक जिंदगी में वेद बचपन के दिनों और सपनों को भूल चुका है। क्या तारा को फिर से मिलने के बाद वेद का जीवन बदल पाएगा?इस साधारण सी बात को इम्तियाज अली ने इमरती की तरह घुमा-घुमा कहानी बनाया है। वह वेद की जिंदगी की एकरसता को बार-बार पर्दे पर दोहराते हुए दर्शक को बोर कर देते हैं।
फिल्म एक ही जगह पर ठहर जाती है। पहले भाग में इंटरवेल के आधे घंटे पहले का हिस्सा आपको रणबीर-दीपिका के रोमांस का फील देता है। मगर इसके अलावा पूरी फिल्म में रणबीर उदास और सिर पीटते दिखते हैं तथा दीपिका उन्हें मनाने की कोशिश में निराश और रोती हुई नजर आती हैं।
फिल्म की कमजोर कड़ी कहानी है। विडंबना है कि इम्तियाज ने फिल्म में बताया है कि आखिर क्यों ज्यादातर जिंदगियों की कहानी एक-सी नीरस होती हैं या फिर क्लासिक प्रेम कहानियों में त्रासदी क्यों उभर कर आती है। जबकि खुद उनकी यह जिंदगी और प्रेम के मिक्स वाली यह कहानी ऊबा देती है और अधिकतर हिस्से में दर्शक के लिए त्रासदी सिद्ध होती है।
सच्चाई यह है कि दोनों कलाकारों ने बहुत बढ़िया अभिनय किया और लोकेशन खूबसूरत हैं। वे आकर्षित करते हैं। लेकिन कहानी को कहने का निर्देशक का तरीका कमजोर कर देता है। ऐसा नहीं है कि सिनेमा में प्रयोग नहीं होने चाहिए लेकिन उन्हें दर्शकों के लिए जटिल और नीरस कतई नहीं होना चाहिए। यह सिनेमा की सेहत के लिए ठीक नहीं है।एक बात और कि सिर्फ विदेश में शूट करने के लिए ही वहां जाने का कोई अर्थ नहीं… जबकि फिल्म आपको घाटकोपर और चांदनी चौक के प्रेमी बाशिंदों के लिए बनानी हो!