1857 की आज़ादी की लड़ाई में मध्य प्रदेश के रामगढ़ रियासत की रानी अवंतिका बाई लोधी का भी नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। रामगढ़ मध्य प्रदेश के मांडला ज़िले में 1857 में एक छोटा-सा कस्बा था। वहाँ के अंतिम राजा लक्ष्मण सिंह थे, जिनकी मृत्यु 1850 ई. में हो गई। लक्ष्मण सिंह के मरने के बाद उसके राजकुमार विक्रमजीत सिंह ने गद्दी सँभालीं। दुर्बल मस्तिष्क होने के कारण वह बहुत दिनों तक शासन नहीं चला सका। डलहौज़ी की हडपनीति का रामगढ भी शिकार हुआ। रानी की इच्छा के विपरीत वहाँ एक तहसीलदार नियुक्त किया गया ओर राजपरिवार को पेन्शन दे दी गई। रानी घायल सिंहनी की तरह समय का इंतज़ार कर रही थी।कँपनी सरकार की दुर्नीति के चलते 1857 में क्रांति भड़क उठी। इस क्रांति में केवल सिपाहियों ने ही नहीं अनेक राजाओं और महाराजाओं ने भी भाग लिया। झाँसी, सतारा, कानपुर, मेरठ सभी जगह क्रांति के झंडे फहराने लगे।
रामगढ की रानी भला इस क्रांति से अपने को कैसे अलग रख सकती थी। जुलाई 1857 में उन्होंने क्रांतिछेड दी। सरकार द्वारा स्वयं युद्ध का नेतृत्व करने लगी। उसके विद्रोह की ख़बर जबलपुर के कमिश्नर तक पहुँचीं। कमिश्नर ने रानी को पत्र द्वारा निर्देश दिया कि मण्ड़ाला के डिप्टी कलेक्टर से मिले। उन्हें यह संदेश मिला कि सरकार के साथ संधि कर ले अथवा परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे। अवंतिका बाई लोधी ने कमिश्नर के आदेश का उल्लंघन करते हुए पूरी शक्ति के साथ सरकार का विरोध किया। रानी ने सरदारों का उत्साह बढ़ाते हुए कहा- च् भाइयों जब भारत माँ ग़ुलामी की जज़ीरों से बँधी हो तब हमें सुख से जीने का कोई हक़ नहीं। माँ को मुक्त करवाने के लिए ऐशो-आराम को तिलांजलि देनी होगी ख़ून देकर ही आप अपने देश को आज़ाद करा सकते है।छ
रानी ने अपने व्यक्तित्व से समस्य सैनिकों में अपूर्व उत्साह भरा, युद्ध जमकर हुआ। सरकारी फ़ौज को मुँह की खानी पड़ी ।1 अप्रैल 1858 को ब्रितानी 1858 को ब्रितानी रामगढ़ पर टूट पडे़। रानी ने तलवार उठाई। सैंकड़ों सिपाही हताहत हुए। सेनापति को अपनी जान लेकर भागना पड़ा लेकिन ब्रितानी भी हार मानने वाले नहीं थे। वाशिंगटन के नेतृत्व में अधिक सैन्य बल के साथ पुन: रामगढ पर आक्रमण किया गया। इस बार भी रानी के कृ तज्ञ और बहादुर सैनिकों ने ब्रितानियों को मैदान चेड़ने के लिए बाध्य किया। यह युद्ध बड़ा चोकहर्षक था। दोनों तरफ़ के अनेक बहादुर सिपाही वीरगति को प्राप्त हुए। रानी की ललकार पर रामगढ की सेना दुश्मनों पर टूट पड़ती। अवंतिका बाई के सफल नेतृत्व के कारण वाशिंगटन को पुन: मैदान छोड़ना पड़ा।
रानी के सिपाही लड़ते-लड़ते थक चुके थे। राशन की कमी होने लगी फिर भी रानी ने सैनिकों में उत्सह भरा, उनकी कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया। उसे पता था कि ब्रितानी अपनी हार सदा स्वीकार नहीं करेंगे। नए सिरे से सैनिकों का संगठन किया गया। रानी की शंका सही सिद्ध हुई। तीसरी बार बड़ी तैयारी के साथ ब्रितानी सिपाही रामगढ पर टूट पड़े। घमासान युद्ध हुआ। रानी बहादुरी से लड़ी। अनेक सिपाही मारे गए।रानी समझ गई की विजय भी उनके पक्ष में नहीं। वह अपने कुछ सैनिकों के साथ जंगलों भाग गई और गुरिल्ला युद्ध का संचालन करने लगी। आशा थी कि रीवां नरेश रामगढ की मदद क रेंगे पर उन्होंने ब्रितानियों का साथ दिया।
हिम्मत की भी हद होती है केवल बहादुरी से काम कब तक चलता? न संगठित सेना थी, न विशाल आधुनिक शस्त्रागार ही। रानी ने अँग्रेज़ों के हाथों मरने की अपेक्षा स्वयं अपनी जान देना ज़्यादा उचित समझा। उसने खुद ही अपनी तलवार से अपना सीना चीर लिया। भारत माँ को मुक्ति के लिए इस महान नारी के बलिदान को हम सदा याद रखेंगे।