प्रगतिवादी आन्दोलन 1930 के बाद उभर रहे यथार्थवादी परिणामों व परिस्थितियों को विकसित करने वाला आन्दोलन था। इस आन्दोलन ने सामाजिकता से परिपुष्ट यथार्थवादी कथा साहित्य की नींव रखी। प्रगतिवादी साहित्य को प्रारम्भिक दौर में रचना की दृष्टि से नेतृत्व व निर्देशन प्रेमचन्द, पंत, निराला और उग्र से मिला परन्तु उपन्यास के माध्यम से मार्क्सवादी विचारों को जनता तक पहुँचाने का प्रथम प्रयास राहुल सांकृत्यायन ने ‘भागो नही दुनिया को बदलो’ के माध्यम से किया।
जहाँ तक प्रगतिवादी कथा आन्दोलन और भीष्म साहनी के कथा साहित्य का प्रश्न है तो इसे काल की सीमा में बद्ध कर देना उचित नही है। हिन्दी लेखन में समाजोन्मुखता की लहर बहुत पहले नवजागरण काल से ही उठने लगी थी। मार्क्सवाद ने उसमें केवल एक और आयाम जोड़ा था। इसी मार्क्सवादी चिन्तन को मानवतावादी दृष्टिकोण से जोड़कर उसे जन – जन तक पहुंचाने वालों में एक नाम भीष्म साहनी जी का है। स्वातन्त्र्योत्तर लेखकों की भाँति ‘भीष्म साहनी’ सहज मानवीय अनुभूतियों और तत्कालीन जीवन के अन्तर्द्वन्द्व को लेकर सामने आए और उसे रचना का विषय बनाया। जनवादी चेतना के लेखक भीष्म जी की लेखकीय संवेदना का आधार जनता की पीड़ा है। जनसामान्य के प्रति समर्पित साहनी जी का लेखन यथार्थ की ठोस जमीन पर अवलम्बित है।
भीष्म जी एक ऐसे साहित्यकार थे जो बात को मात्र कह देना ही नहीं बल्कि बात की सच्चाई और गहराई को नाप लेना भी उतना ही उचित समझते थे। वे अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विषमता व संघर्ष के बन्धनों को तोड़कर आगे बढ़ने का आह्वाहन करते थे। उनके साहित्य में सर्वत्र मानवीय करूणा, मानवीय मूल्य व नैतिकता विद्यमान है।
उनका जन्म 8 अगस्त 1915 को रावलपिण्डी में एक सीधे-सादे मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। वह अपने पिता श्री हरबंस लाल साहनी तथा माता श्रीमती लक्ष्मी देवी की सांतवी संतान थे। 1935 में लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से अंग्रेजी विषय में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् उन्होने डॉ इन्द्रनाथ मदान के निर्देशन में ‘Concept of the hero in the novel’ शीर्षक के अन्तर्गत अपना शोधकार्य सम्पन्न किया। सन् 1944 में उनका विवाह शीला जी के साथ हुआ। उनकी पहली कहानी ‘अबला’ इण्टर कालेज की पत्रिका ‘रावी’ में तथा दूसरी कहानी ‘नीली ऑंखे’ अमृतराय के सम्पादकत्व में ‘हंस’ में छपी।
साहनी जी के ‘झरोखे’, ‘कड़ियाँ’, ‘तमस’, ‘बसन्ती’, ‘मय्यादास की माड़ी’, ‘कुंतो’, ‘नीलू नीलिमा नीलोफर’ नामक उपन्यासो के अतिरिक्त भाग्यरेखा, पटरियाँ, पहला पाठ, भटकती राख, वाड.चू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली, प्रतिनिधि कहानियाँ व मेरी प्रिय कहानियाँ नामक दस कहानी संग्रहों का सृजन किया। नाटको के क्षेत्र में भी उन्होने हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी मुआवजे जैसे प्रसिद्धि प्राप्त नाटक लिखे। जीवनी साहित्य के अन्तर्गत उन्होने मेरे भाई बलराज, अपनी बात, मेंरे साक्षात्कार तथा बाल साहित्य के अन्तर्गत ‘वापसी’ ‘गुलेल का खेल’ का सृजन कर साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम अजमायी। अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले उन्होने ‘आज के अतीत’ नामक आत्मकथा का प्रकाशन करवाया। 11 जुलाई सन् 2003 को इनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया।
स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले भीष्म जी गहन मानवीय संवेदना के सषक्त हस्ताक्षर थे। जिन्होने भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक यथार्थ का स्पष्ट चित्र अपने उपन्यासों में प्रस्तुत किया। उनकी यथार्थवादी दृष्टि उनके प्रगतिशील व मार्क्सवादी विचारों का प्रतिफल थी। भीष्म जी की सबसे बड़ी विशेषता थी कि उन्होने जिस जीवन को जिया, जिन संघर्षो को झेला, उसी का यथावत् चित्र अपनी रचनाओं में अंकित किया। इसी कारण उनके लिए रचना कर्म और जीवन धर्म में अभेद था। वह लेखन की सच्चाई को अपनी सच्चाई मानते थे।
कथाकार के रूप में भीष्म जी पर यशपाल और प्रेमचन्द की गहरी छाप है। उनकी कहानियों में अन्तर्विरोधों व जीवन के द्वन्द्वो, विसंगतियों से जकड़े मघ्यवर्ग के साथ ही निम्नवर्ग की जिजीविषा और संघर्षशीलता को उद्घाटित किया गया है। जनवादी कथा आन्दोलन के दौरान भीष्म साहनी ने सामान्य जन की आशा, आकांक्षा, दु:ख, पीड़ा, अभाव, संघर्ष तथा विडम्बनाओं को अपने उपन्यासों से ओझल नहीं होने दिया। नई कहानी में भीष्म जी ने कथा साहित्य की जड़ता को तोड़कर उसे ठोस सामाजिक आधार दिया। एक भोक्ता की हैसियत से भीष्म जी ने विभाजन के दुर्भाग्यपूर्ण खूनी इतिहास को भोगा है। जिसकी अभिव्यक्ति ‘तमस’ में हम बराबर देखते है। जहाँ तक नारी मुक्ति समस्या का प्रश्न है, भीष्म जी ने अपनी रचनाओं में नारी के व्यक्तित्व विकास, स्वातन्त्र्य, एकाधिकार, आर्थिक स्वातन्त्रता, स्त्री शिक्षा तथा सामाजिक उत्तरदायित्व आदि उसकी ‘सम्मानजनक स्थिति’ का समर्थन किया हैं।
एक तरह से देखा जाए तो साहनी जी प्रेमचन्द के पदचिन्हों पर चलते हुए उनसे भी कहीं आगे निकल गए है। भीष्म जी की रचनाओं में सामाजिक अन्तर्विरोध पूरी तरह उभरकर आया है। राजनैतिक मतवाद अथवा दलीयता के आरोप से दूर भीष्म साहनी ने भारतीय राजनीति में निरन्तर बढ़ते भ्रष्टाचार, नेताओं की पाखण्डी प्रवृत्ति, चुनावों की भ्रष्ट प्रणाली, राजनीति में धार्मिक भावना, साम्प्रदायिकता, जातिवाद का दुरूपयोग, भाई-भतीजावाद, नैतिक मूल्यों का ह्यस, व्यापक स्तर पर आचरण भ्रष्टता, शोषण की षडयन्त्रकारी प्रवृत्तियां व राजनैतिक आदर्शों के खोखलेपन आदि का चित्रण बड़ी प्रामाणिकता व तटस्थता के साथ किया। उनका सामाजिक बोध व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित था। उनके उपन्यासों में शोषणहीन, समतामूलक प्रगतिशील समाज की रचना, पारिवारिक स्तर, रूढ़ियों का विरोध तथा संयुक्त परिवार के पारस्परिक विघटन की स्थितियों के प्रति असन्तोष व्यक्त हुआ। भीष्म जी का सांस्कृतिक दृष्टिकोण नितान्त वैज्ञानिक और व्यवहारिक है, जो निरन्तर परिष्करण परिशोधन, व परिवर्धन की प्रक्रिया से गुजरता है। प्रगतिशील दृष्टि के कारण वह मूल्यों पर आधारित ऐसी धर्मभावना के पक्षधर हैं जो मानव मात्र के कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध और उपादेय है।
उनके साहित्य में जहाँ एक ओर सह्नदयता व सहानुभूति है। वही दूसरी ओर जातीय तथा राष्ट्रीय स्वाभिमान की आग भी है। वे पूँजीवादी आधुनिकताबोध और यथार्थवादी विचार धारा के अन्तर्विरोधों को खोलते चलते है। निम्न मध्यवर्ग के समर्थ रचनाकार भीष्म जी भारतीय समाज के आधुनिकीकरण के फलस्वरूप विश्व साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद में व्याप्त भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करते हैं। वे मध्ययुगीन सामन्ती व्यवस्था से समझौता करके पूँजीवाद के द्वारा अपनी बुर्जुआ संस्कृति से लोकप्रिय हुई निम्नकोटि कें बुर्जुआ संस्कारों को चित्रित कर प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाते दिखते है। वे एक ओर आधुनिकताबोध की विसंगतियों और अजनबीपन के विरूद्ध लड़ते हैं तो दूसरी ओर रूढ़ियों अंधविश्वासों वाली धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करते हैं।
यदि स्त्री पुरूष सम्बन्ध की बात की जाए तो भीष्म जी भारतीय गृहस्थ जीवन में स्त्री पुरूष के जीवन को रथ के दो पहियों के रूप में स्वीकार करते है। विकास और सुखी जीवन के लिए दोनों के बीच आदर्श संतुलन और सामंजस्य का बना रहना अनिवार्य है। उनकी रचनाओं में सामंजस्यपूर्ण जीवन जीने वाले आदर्श दम्पत्तियों को बड़ी गरिमा के साथ रेखांकित किया गया है। उनका विश्वास है कि स्त्रियों के लिए समुचित शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता व व्यक्तित्व विकास की सुविधा आदर्श समाज की रचना के लिए नितान्त आवश्यक है। वह स्त्रियों के व्यक्तित्व विकास के पक्षपाती थे। जो अवसर पाकर अपना चरम विकास कर सकती है। भीष्म जी परम्परा से चली आ रही विवाह की जड़ परम्परा को स्वीकार न करके भावनात्मक एकता और रागात्मक अनुबंधो को विवाह का प्रमुख आधार मानते थे।
मानवीय मूल्यों पर आधारित उनकी धर्म भावना इंसान को इंसान से जोड़ती है न कि उन्हें पृथक करती है। उनके उपन्यासों में शोषणविहीन समतामूलक प्रगतिशील समाज की स्थापना के साथ समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगतियों के त्रासद परिणाम, धर्म की विद्रुपता व खोखलेपन को उद्धाटित किया गया है।
मार्क्सवाद से प्रभावित होने के कारण भीष्म जी समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगतियों के त्रासद परिणामों को बड़ी गंभीरता से अनुभव करते थे। पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत वह जन सामान्य के बहुआयामी शोषण को सामाजिक विकास में सर्वाधिक बाधक और अमानवीय मानते थे। बसन्ती, झरोखे, तमस, मय्यादास की माड़ी व कड़ियाँ उपन्यासों में उन्होंने आर्थिक विषमता और उसके दु:खद परिणामों को बड़ी मार्मिकता से उद्धाटित किया जो समाज के स्वार्थी कुचक्र का परिणाम है और इन दु:खद स्थितियों के लिए दोषपूर्ण समाज व्यवस्था उत्तरदायी है। एक शिल्पी के रूप में भी वह सिद्धहस्त कलाकार थे। कथ्य और वस्तु के प्रति यदि उनमें सजगता और तत्परता का भाव था तो शिल्प सौष्ठव के प्रति भी वह निरन्तर सावधान रहते थे।
भीष्म जी प्रेमचन्द के समान जीवन की विसंगतियो और विडम्बनाओं को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं भले ही वह प्रेमचन्द की भाँति ग्रामीण वस्तु को नही पकड़ पाये किन्तु परिवेश की समग्रता में वस्तु और पात्र के अन्त: सम्बन्धो को जिस प्रकार खोलते हैं और इन सम्बन्धों में जनता के मुक्तकामी संघर्षों को रूपायित करते हैं वह निश्चित रूप से उन्हें न केवल प्रेमचन्द के निकट पहुचाता है अपितु उसमें नया भीष्म भी जुड़ जाता है। अपनी रचनाओ में उन्होनें जहाँ जीवन के कटुतम यथार्थो का प्रामाणिक चित्रण किया है वही जनसामान्य का मंगलविधान करने वाले लोकोपकारक आदर्शो को भी रेखांकित किया है। अपनी इन्ही कालजयी रचनाओं के कारण वह हिन्दी साहित्य में युगान्तकारी उपन्यासकार के रूप में चिरस्मरणीय रहेगें।